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________________ १४७] [साधारण धर्म परिपक्कतामें चिन्ताके लिये कोई अवसर नहीं रहना चाहिये था, इसलिये चिन्ताग्रस्त मनुष्यको परम नास्तिक कहना चाहिये। होय निर्चित करे मत चिंतहि, चोंच दई सोई चिन्त करेगी। पाँव पसार परयो किं न मोचन, पेट दियो सोइ पेट भरेगो। जीव जिते जलके थलके, पुनि पाहनमें पहुँचाय धरेगो । भूख हि भूख पुकारत है नर, सुन्दर तू कहाभूख मरेगो॥१॥ काहे को दौरत है दशहूँ दिशि, तू नर देख कियो हरिजू को । बैठ रहे दुरि कै मुख मदि, उधारत दाँत खवाइ है टूको । गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन, होइ रह्यो तब ही जड़ मूको । सुन्दर क्यों विललात फिर अब, राख हुदै विश्वास प्रभुको ।।२।। वास्तवमें यह नियम है कि जब हम फलके लिये चिन्तातुर रहते हैं तब वह देव निश्चिन्त हो बैठता है और जब हम फलके लिये निश्चिन्त रहते हैं तब उसकी धुकधुकी धड़कती है। फिर वृथा ही चिन्ता करके उसको निश्चिन्त क्यों कर दिया जाय १ क्योंकि उसको निश्चिन्त करके हम निश्चिन्त नहीं रह सकते। चिता चिन्ता समाप्युक्ता चिन्ता च विन्दुनाधिका। चिता दहति निर्जीव चिन्ता सा तु सनोविकाः ।। अर्थः- 'चिता' और 'चिन्ता' वरावर कही गई हैं किन्तु चिन्तापर एक विन्दु अधिक है, (उसका यह फल है कि) चिता निर्जीवको जलाती है और चिन्ता जीवोंको । जव हम अपने हृदय-सिंहासनसे उस अन्तर्यामीदेवको नीचे गिरा देते हैं और 'मैं ही सब कुछ करता हूँ इस रूपसे
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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