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[आत्मविलासे नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कथन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ अ. ३. श्लो १७, १८)
अर्थ-जिस मनुष्यकी अपने आत्मामें ही प्रीति है, जो श्रात्मामें ही हम है तथा श्रात्मामें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता । इस संसार में इस पुरुपके लिये कुछ किये जानेसे प्रयोजन नहीं और न किये जानेसे भी कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्योकि उसका सम्पूर्ण भूतोंमें किसी प्रकारका लगाव नहीं रहा, वह अपने साक्षीस्वरूपसे सर्वथा असग है।
आशय यह कि उसके लिये स्वरूप-जागृति प्राजानेसे न तो 'कुछ करना' ही कर्तव्य रहता है और न 'कुछ न करना, क्योंकि उसकी दृष्टिमें तो सब ससार स्वमवत् ही रह गया है, ऐसी अवस्थामें कर्तव्य कहाँ ? कर्तव्य तो उस समयतक ही था जबतक संसारको सत्-बुद्धिसे ग्रहण किया जा रहा था । तिलक महोदय ने ऐसे स्पष्ट शब्दोंकी भी खचातानी करके ज्ञानी के साथ कर्तव्य ही लोड़ा है। भगवान्जी ! सब कर्तव्य तो कर्तव्योंसे छुटकारा पानेके लिये ही थे, न कि कर्तव्यमें धाँध रखनेके लिये ही । सब बीज फल खानेके लिये ही थे नकि बोते रहने के लिये ही।
तिलक मतमें ऐसा वर्णन किया गया है कि ज्ञानोको निष्काम कर्म करते-करते मृत्युके पश्चात् मोक्ष मिन जाता है । इस , मतके अनुसार:
प्रथम तो ज्ञानीको अपने कर्तव्य-काँके साथ मोक्षरूपी स्वार्थ
लगा हुआ है कि इसप्रकार कर्म करनेसे हमारी मोक्ष होगी। जब मोक्षरूपी स्वार्थ है तब वह निरस्वार्थ नहीं और जब उसका अपने कर्तव्य-कोंके साथ स्वार्थ है तब वह निष्कामी