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( ३५ ) में कोई हानि नहीं कर सकते । शरीरादिके उत्पत्ति-नाशमें मैं अपने जलस्वरूपमें न्यू -का-त्यूँ हूँ। उत्पत्ति-नाश तरङ्गोंका है, मेरे जलस्वरूपकी न उत्पत्ति है न नाश । तरङ्गोंकी उत्पत्तिमें भी जल है, स्थितिमें भी जल है और तरङ्गोंके नाशमें भी जल है। यही 'सोऽह' ( वह मैं हूँ। का भावार्थ है। । नहीं देह' इन्द्रिय न अन्तःकरण । . ' '
नहीं बुद्धधहकार व प्राण मन ।। नहीं क्षेत्र घर वार नारी न धन ।
मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, चिदानन्द धन । '
(२) तत्व-विचार (१) जिस प्रकार अन्त करण व इन्द्रियाँ घटादिको देखतीजानती हैं, इसी प्रकार देखना व जानना आत्माका नहीं। क्योंकि अन्तःकरण आँखसे निकलकर घटादि देशमें जाता है और वस्तुके रूपको अपनी क्रिया करके देखता है । वही अन्तःकारण कानसे निकलकर शब्ददेशमें जाता है और शब्द को जानता है। परन्तु आत्मा वस्तुदेशमें जाकर वस्तुका ज्ञान नहीं करता, क्योंकि वह तो सर्व व्यापी है उसमें आना-जाना नहीं बनता, वह तो पहले ही वहाँ मौजूद है । इसलिये आत्मा का देखना व जानना अन्तःकरणको भॉति क्रियारूप नहीं, किन्तु केवल प्रकाशरूप है। , . , .
(२) जिस प्रकार दीपक घरमें आप. प्रकाशमान होता हुआ घरकी अन्य वस्तुओंको विना किसी क्रियाके प्रकाशित कर
न मैं देह, इन्द्रिय, मन व बुद्धयादि हूँ और न ही क्षेत्र, घर, स्त्री व धनादि मेरे हैं, किन्तु मैं तो वह अलुस-प्रकाश, आनन्द-धन शिव हूँ, जिसके प्रकाशमें यह सब प्रकाशमान हो रहे हैं और जिस प्रकाशमें इनका व्यवहार हो रहा है। ..