Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 537
________________ ( ३६) (४) तत्त्व-विचार (१) जिस प्रकार कटक-कुण्डलादि सुवर्णक विशेषरूप हैं व कार्य हैं, सुवर्ण कटका कुण्डलादिका सामान्यरूप हे व उपादान है। इसी प्रकार पञ्चभूतरचित स्थावर-जगमरूप जगत् , देह, इन्द्रियों, अन्तःकरण और सुख-दुःखादि अन्तःकरणकी वृत्तियाँ उत्पत्तिवाले हैं। जो उत्पत्तिवाले हैं सो कार्य हैं और जो कार्य हैं सो सामान्यचेतनके विशेषरूप हैं। इसप्रकार मामान्यचेतन ही इन सब कार्यों (विशेष रूपों)का सामान्यरूप है और उपादान है। (२) जिस प्रकार सामान्यरूप सुवर्ण विना कटक-कुण्डलादि विशेषरूपोंकी उत्पत्तिका सम्भव नहीं और मामान्यरूप सुवर्णमे विशेषरूपोंके उत्पत्ति-नाशका कोई विकार भी नहीं। इसी प्रकार सामान्यचेतन विना इन विशेषरूप कार्योकी उत्पत्तिका सम्भव नहीं तथा सामान्यचेतनमे इन विशेपम्प कार्योंके उत्पचि-नाशका कोई विकार भी नहीं।। (३) जिस प्रकार यद्यपि कटक-कुण्डलादि विशेषरूपोंका परस्सर भेट है, तथापि मामान्यरूप सुवर्णसे किसीका भी भेद नहीं, वह सामान्यरूप सुवर्ण तो मव विशेषरूपोंमे अनुगत होकर व्याप रहा है। इसी प्रकार यद्यपि पञ्चभूत, घर, जङ्गल, नदी, वृक्ष, पर्वत व देहादि विशेपम्पोंका परस्पर भेद है, तथापि सामान्यचेतनसे किसीका भी भेट नहीं, वह तो सब विशेपरूपोंमें अनुगत होकर च्याप रहा है। (४) जिस प्रकार कटक कुण्डलादि विशेषरूप अपने सामान्यम्पसे भिन्न कोई वस्तु नहीं हैं। सव कटक कुण्डलादि विशेषरूपोंमें सुवर्ण अपने सामान्यरूपको ही देखता है, विशेष. "रूप केवल प्रतीविमान ही है व भ्रममात्र ही हैं।

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