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( ३४ ) कभी मैं राजा था कभी भिखारी और वही मैं जाग्रत्मे यह सब टिकाऊ रूपसे देख रहा हूँ'। इससे स्पष्ट हुआ कि मैं सब अवस्थाओंमे हाजिर हूँ। ।
(४) अथवा दूसरा विचार यह कि जो चीज 'मेरी होती है वह चीज 'मैं आप नहीं हो जाता । किन्तु मेरी चीज़ मुझसे सदैव भिन्न होती है, जैसे मेरा भूपण, मेरा वस्त्र मुझसे अलग ही होता है। इसी प्रकार हम अपने वयानसे सिद्ध करते हैं कि 'मेरा शरीर रोगी है.' 'मेरी आँख-कान आदि इन्द्रियाँ थकित हो गई हैं, 'मेरा मन नहीं टिकता,' 'मेरी बुद्धि चञ्चल हो रही है, 'मेरा अन्तःकरण दुःखी है।' इत्यादि व्यवहारसे यह सिद्ध होता है कि न मै शरीर हूँ, न इन्द्रियाँ, न मन, न बुद्धि और न अन्तःकरण ही हूँ। किन्तु यह मेरे हैं और मेरा इनसे काल्पनिक मिथ्या सम्बन्ध है,क्योंकि सुपुप्तिमें यह कोई भी नहीं रहते परन्तु मैं तो वहाँ भी हूँ।
(५) इस प्रकार मैं सब अवस्थाओंका साक्षी, सबको देखने-जाननेवाला और नित्य-निरन्तर अजर-अमर हूँ । जरा. मरण, सुख-दुःख आदि विकार शरीरके हैं, शरीर अपने भोगों को भोगे, मुझे इससे क्या ? किन्तु मैं तो शरीरके सब विकारों को जाननेवाला हूँ और यह सिद्ध करता हूँ कि मेरा शरीर सुखी है, दुःखी है और उन दु.खादिको भी देखने जाननेवाला हुँ ।
और यह बात स्पष्ट है कि देखनेवाला-जाननेवाला देखी जानेवाली चीज नहीं बन जाता,किन्तु देखी हुई चीजसे अलग ही रहता है । जैसे घटका देखने जाननेवाला स्वयं घट नहीं बन जाता। इसीप्रकार दुःखादिको देखने-जाननेवाला मैं दुःखादिसे अलग हूँ । शरीरके मरनेसे मैं मरता नहीं, जन्मसे मैं जनमवा नहीं, शरीर रहे चाहे गिरे। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि मेरे जलस्वरूपमे तरङ्ग के समान उत्पन्न होते और लय होते हैं, किन्तु मेरे जलस्वरूप