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आत्मविलास
द्वि० खण्ड की अपनी कल्पना है। वह आप ही ब्रह्माण्डकी कल्पना करता हुश्रा, इसको न जानकर कि यह सब मेरा ही खेल है, अपनेसे भिन्न किसी व्यक्तिविशेष अन्य देवको इसका रचयिता जानता है।
विवरणकारका मत है कि जैसे दर्पणके सन्निधानसे मुखका प्रतिबिम्ब दर्पणमें प्रतीत होता है और दर्पणस्थ-मुखमें प्रतिबिम्बत्वधर्मकी कल्पना करके ही ग्रीवास्थ मुखमे विन्धत्व-धर्म कल्पना किया जाता है, अर्थात् एक ही मुखमें बिम्बत्व-प्रतिविम्यत्व धर्म की कल्पना दर्पणके सम्बन्धसे है, दर्पणके बिना शुद्ध मुखमें न बिम्पत्व है और न प्रतिबिम्बत्व, केवल ज्यू का-त्यू मुख ही है। इसी प्रकार एक ही चेतनमे जो जीवत्व और ईश्वरत्व-धर्मकी प्रतीति होती है, सो दर्पणस्थानीय अज्ञानकी उपाधिके सन्निधानसे ही है, वस्तुतः जीवत्व व ईश्वरत्व-धर्म दोनो ही मिथ्या हैं। अज्ञानरूप उपाधिके बाध हुए न जीवत्व-धर्म रहता है और न ईश्वरत्व, केवल शुद्ध चेतन अपने-आपमें ज्यू-का-त्य ही शेष रहता है। इस रीतिसे अज्ञानरूप उपाधिके सद्भाव करके अज्ञानदेशमें प्रतिविम्बित चेतन ही अपनेमे जीवत्वकी कल्पना करता हुआ, विम्बरूप-वेतनमें ईश्वरत्वकी कल्पना करता है।
(५७) शङ्का :--तुमने यह तो विचित्र वार्ता कथन की, तुम कहते हो जितने जीव हैं उतने ही ब्रह्माण्ड हैं और जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है। तुम्हारे यह वचन तो किसीके भी अनुभवमे प्रारूद नहीं हो सकते । वर्तमान ब्रह्माण्डमें असंख्य जीव हैं, फिर तुम्हारे कथनके अनुसार तो असंख्य ही ब्रह्माण्डों की प्रतीति होनी चाहिये । परन्तु सभी जीव एक मुख होकर एक ही ब्रह्माण्डको सम्मुख देख रहे हैं। तथा तुम कहते हो 'जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है, यदि ऐसा ही हो तो यह घट जो सम्मुख देशमें रक्खा है और सभी मनुष्य इस एक ही घटकी