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श्रात्मविलास]
[२०२ द्वि० खण्ड जीवाभास है । यद्यपि इनमेसे प्रत्येक अपनी-अपनी सृष्टिके मुख्यजीव हैं और अन्य दृश्य-जीव जीवाभास हैं, परन्तु अज्ञानकी दृढ़ता करके अन्य जीवाभासोंमे भी वे वे मुख्य-जीवोकी कल्पना फरते है और उनका भी अपने समान बद्ध देखते हैं। परन्तु इनमें से जब-जब जिस-जिमका अज्ञान ज्ञानद्वारा वाधित होकर साक्षीचेतनसे अभेद हो जाता है, उस-उसकी दृष्टिमे अज्ञान, जीर, जगत् और ईश्वरका अत्यन्ताभाव सिद्ध हो जाता है और वह निश्चय करता है कि अहं-त्वं रूपसे कदाचित् कुछ बना ही नहीं था, यह सब मेरी ही कल्पना थी।
(६८) इस रीतिसे देवदत्त, यज्ञदत्त, सोमदत्तादिमेसे प्रत्येक दूसरेकी दृष्टिरूप सृष्टि में तो आभासरूपजीव है ही, केवल अपनीअपनी सृष्टि में ही वे मुख्य-जीव होते है, सो मुख्यता अज्ञानकल्पित है, वास्तवमे तो सभी आभासरूप है। इनमेंसे जिस-जिसकी अज्ञानरूप उपाधि निवृत्त हुई, उस-उसका साक्षी-चेतनसे अभेद हुआ। अभेद कोई बनाना नहीं था, अभेद तो स्वतःसिद्ध था, केवल अज्ञानकी उपाधि करके ही सोपाधिक भेद बन रहा था
और जब कल्पित-उपाधिकी निवृत्ति हुई तो न कोई मुख्य-जीव रहा और न जीवाभास रहे। इस रीतिसे द्रष्टा-जीवकी सृष्टिमें शुक्र-वामदेवादि जीवाभासोंका मोक्ष सम्भव है, अपने समान
*माया-विशिष्टचेतन, जो अपनी मायाद्वारा सृष्टिकी रचना करता है, 'ईश्वर' कहाता है । जबतक सृष्टिकी उत्पत्ति-स्थितिमें सद्बुद्धि रहती है, तब तक उसके रचयिता ईश्वरमें भी सद्बुद्धि बनी रहती है। परन्तु ज्ञानद्वारा सृष्टिका त्रिकालाभाव सिद्ध हो जानेपर कार्यके अभावसे ईश्वरसना भी वावित हो जाती है और शुद्ध चेतन ही शेष रह जाता है। क्योंकि मायाके सम्बन्ध करके ही माया-दृष्टि करके उसमें ईश्वरता कली हुई थी, सो माया । शानद्वारा बाधित हो चुकी ।
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