Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 518
________________ हे नाथ ! आपकी कृपासे हमने अब यह जाना है कि संसार मे अशान्तिका कारण और कोई नहीं हे केवल पढाथोंका ममत्व ही हमारे दुःखोका कारण बनता है । घर वार कुटुम्ब-परिवार आदि वास्तवमे हमारे नहीं है, क्योंकि हमारे इम शरीरमे श्रानेसे पहले भी ये किसी-न-किसी रूपमे थे और आपके ही थे तथा जब हम इस संसारमे न रहेगे तब भी यह हमारे न रहेगे, आपके ही होंगे। बीचमे ही इनको हमने अपनाकर अपनेको दुखी किया है। अब आप कृपाकर हमे वह बुद्धिवल दे कि जिससे फिर कभी इन पदार्थोंको अपना करके न जाने, वरन् आपके श्राज्ञाकारी सेवक की भॉति निष्काम-भावसे आपके परिवारकी सेवा करें और हानि-लाम अपना करके न मानें । जो आज्ञा आप हमको हमारी बुद्धिद्वारा देवें उसका सत्यवासे पालन करें। जो कुछ मुंहसे बोले यह सत्य बोले । जो कुछ हमारे द्वारा हो वह सबकी भलाईके लिये हो । जो खावें वह आपका प्रसाद हो, जो पीवें वह आपका चरणामृत हो, हाथोंसे जो कुछ करे वह आपकी सेवा हो, पॉवों से चलें वह आपकी परिक्रमा हो, आँखोंसे देखे वह आपका ही रूप देखें और कानोंसे सुने वह आपका गुणानुवाद हो। - हे भगवन् । यह क्रोधरूपी चाण्डाल जब हमारे हृदयमें प्रकट होता है तब हम वन-मनसे अपवित्र हो जाते हैं। इसके आगे हम हार पड़े हैं आप इससे हमारी रक्षा करें हम आपकी शरण है । अरे मन !जब कभी तू इस भूतके प्रभावमें आया हुआ होता है उस समय अवश्य तू अपने सद्गुरुसे विमुख और नास्तिक हो जाता है। (१) यदि किसी प्रकार हानि समझकर तू इस पिशाचके प्रभावमे आता है तो तू परम नास्तिक है। क्योंकि प्रथम तो हानि-लाम तेरा अपना कुछ है ही नहीं, जब कि कोई पदार्थ तेरे अपने रहते ही नहीं हैं। तू तो केवल अपने कर्तव्यका पालन

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