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( २४ ) सच-मुच बुरे हम हैं, जो आपकी करणीमे भलाई बुराईकी कल्पना करते रहते हैं और तपते हैं। जिस प्रकार बच्चेके शरीरमें उत्पन्न हुए फोड़े को जर्राह चीरा लगाकर उसकी पीप निकाल देता है, परन्तु मूर्ख बालक जर्राहके उपकारको न जान उल्टा रुदन करता है। इसी प्रकार हे स्वामी ! आप भी हमारे संसाररूपी रोगको दूर करनेके लिये करुणा करके समय-समय पर हमारे हृदयमें चीरा लगानेकी कृपा करते हैं, परन्तु हम अपनी मूर्खतासे आपके उपकारको अनुपकार करके मान लेते हैं और उल्टा आपके अपराधी वन जाते हैं।
हे प्रमो! चारों ओरसे टकरें खा-खाकर अब हमने यह अटल निश्चय कर लिया है कि मंसारमें और दुःख कोई नहीं, केवल इस तुच्छ अहङ्कारका किसी भी रूपमे उदय होना, यही दुःख है और कालीय-दमनकी भाँति इसके फोंको मसलते रहना, यही एक सुख है । यहो सब दुःखोंकी ग्वानि है, जिससे जन्म-मरणरूपी आपदा निकलती रहती है। आप अनन्त शान्तसमुद्र में मसाररूपी भेवर उठानेवाला और जीवको उनमें डुवा देनेवाला यही एक जीवका परम शत्रु है। पहले यह अपने अज्ञान करके आपके स्वरूपसे भिन्न 'श्रहं रूपसे कुछ वन बैठता है, शेष प्रपंचको अपनेसे भिन्न करके जानता है और इस भेदबुद्धि करके किसीमें अनुकूलता, किमीमे प्रतिकूलता ठानता है। इसप्रकार अनुकूलमे रागवुद्धिसे चिमटनेके लिये और प्रतिकूलमें द्वेपबुद्धिसे त्यागके लिये मटपटाता है। इसी राग-द्वपके कारण यह कर्ता-बुद्धि करके पुण्य-पापके बन्धनमे बँधा हुआ घटीयन्त्रक समान जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ ऊपर-नीचे भटकता फिरता है। वास्तवमें यदि विचारसे देखा जाय तो कोपन
रज्वकमात्र भी इसका कुछ नहीं, सब कुछ कता-धर्ता तो श्राप • ही हैं। जो काम इसकी जानकारीमें होते हैं उनमें भी केवल