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( २२ ) हम जिससे इस शत्रुको जीते और इस चाण्डालसे हमारा पर्श न हो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपंहुँ दोऊ कर जोरे मैं श्रीभगवान ! ॥१॥
(शेष पृ० १० पर)
(७) सर्वत्याग-प्रार्थना हे भगवान् ! यह अपनी मायाफा गोरख-धन्धा तो आपने विचित्र फैलाया है, यह तो किसी प्रकार सुलझनेमें ही नहीं
आता। ज्यूँ-ज्यू सुलझाने जाते हैं उल्टा-उल्टा उलझवा जाता है, हम तो वेढव फंसे हैं। आपको मायाने वो बन्दरकी भॉति बड़ा नॉच नचाया है। अब तो हमसे यह नॉच नहीं नॉचा जाता, हम तो थक चुके । आपकी कृपासे थाडी ऑखे टिमटिमाई तो मालूम हुआ कि हम तो अभीतक ठगे ही पड़े थे, जिनको भोग समझते थे वे तो रोग निकले,जिनको अमृत समझा था वे तो विष निकले। आपकी मायाका तो कहीं पार ही नहीं, जन्ममरणके चकका कहीं अन्त ही नजर नहीं आता । अब कृपा करो अपनी मायाका ममेटो, आपका तो खेल होगया परंन्तु हमारा तो मरना । आपकी तो यह हंसी हुई परन्तु हमारा तो जलना और रोना । यह तो हाँसी में खॉसी निकल पड़ी। के विरहनिको मीच दे के आपा दिखलाय ।
आठ प्रहरका दामना मोपे सहा न जाय ।। कृपा करो, यदि आपको अपना खेल खेलना ही मजूर है वो हमको भी वह दृष्टि प्रदान करो, जिससे हम भी तमाशा देवनगाले बनें। अब तो हमसे इस संसाररूपी नाटकघरमें एस्टर (Acian) बनकर पिटने-पिटानेका झगड़ा नहीं सहा