Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 528
________________ ( ३० ) घर चोर न फड़िया जाई । मेरो तेरे पास दुहाई ॥ मैं दीन दुखी तब टेका । तुम बांझ न सहुरा पेका ।। मेरा उजरा धाम वसावो । 'मेरा' 'मैं नूं मार मुकावो॥ बिन दर्श तुम्हारा देखे । मेरा जोवन केहिरे लेखे । अब नाथ देर नहीं कोजे। मेरी दुपदी नाव कढोजे।। अरे मन | तू आप अपना शत्रु मत बन, अपना मित्र बन । इन पाचारणोंसे तू भी सुखी कहाँ ? हाय । तू इतना प्रमादी क्यों हो गया, जिससे आप ही अपनेको बन्धन कर अपने संगसे मुझ चेतन-पुरुषको भी अनर्थका पात्र बनाता है। मालूम होता है तू जातिसे कोई चाण्डाल है, जिसने केवल अपने सम्बन्धसे मुझ निष्पाप-निष्कलङ्कको भी पापी कलङ्की बना डाला । अव तो चेत कर, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा । सोना यदि कीचड़में मिल जाय नो उमके अन्दर कुछ विकार नहीं चला जाता, वह धोनेसे ही शुद्ध है। अब तू अपने-आपको शुद्ध कर और अपने सम्बन्धसे मुझ चेतन-पुरुपको मलिन करनेके बजाय मेरे सम्बन्धसे तू निर्मल हो। पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र, धरा धन घाम है बन्धन जी को। चारहिं बार विपय-फल खात, अघात न जात सुधारस फीको। धान श्रीसान तजो अभिमान, सुनो धर कान भजो सिय पी को। पाय परमपद हाथ सुजात, गई सो गई अब राखरही को। एक श्वाँस खाली नहीं खोइये खुलक बीच, कींचरूप कलङ्क अङ्क धोयले तो धोयले। ..यि ३ सुसगल ३. पीहर

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