Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 527
________________ भी पूरी न हुई और मै नो सारे संसारके सुखको हड़प करनेके लिये तड़प रहा हूँ, कि जिससे ऊँचा और कोई सुख दुनियॉमे न मिले। परन्तु सुखके बजाय तूने तो उल्टा तृष्णाकी अग्निमें जलाया, जिसकी स्मृतिसे अब भी कलेजा जलता है और इसका कलङ्क तो इतना काला है कि इमकी त्याही अनेक जन्मोंमे भी नहीं धुल सकती! (२) अथवा तूंन मान-बड़ाई पानेमें अबतक मुझे फंसाया और यह चिरका दिया कि इससे मैं सुखी होऊँगा। परन्तु सुम्वी होनेके बजाय उल्टा राग-द्वेपकी अग्नि भड़की और दीनका दीन ही रहा। (३) अथवा तूने मेरेमे यह अभिमान भरा कि मैं बुद्धिमे निपुण हूँ। परन्तु यह बुद्धिको चतुराई तो संसारके लिये नहीं थी, इस चतुराईका उद्देश्य तो केवल यही था कि जड़-चेतनमिश्रित इस संसारमेंसे हंस-वृति करके दूधके समान परम सार वस्तु को (ढ निकाला जाता। न यह कि इस चतुराई करके आप ही अपने गलेमे जन्म-मरणकी फांसी लगा ली जाती। हाय ! इस हिसावसे तो पाया कुछ नहीं,सर्वस्व खोया कमाया कुछ नहीं, श्वासोंकी पूँजी ही गंवा बैठा। तृप्ति कुछ न हुई, उल्टा रोग बढ़ा। अरे दुहाई है। मैं तो लुट गया, मेरी गति तो इसके हाथोंमे वही हुई जो एक गौकी कसाईके हाथो में होती है। अरे दुष्ट ! बछड़े के समान दूध ग्रहण करनेके बजाय तू तो जोककी भॉति मेरे खूनका प्यासा हुआ। हंस बननेके बजाय तू नो मांस-विष्टा ग्रहण करनेवाला काक निकला। हे प्रभो दुहाई है आपके चरण-कमलोंकी, मैं अनाथ आपकी शरण हूँ, मित्रके स्वॉगमे इस शत्रुसे मेरी रक्षा करो। मेरे घर विच चोर उचक' । केई दुश्मन लागे पक्के ।

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