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न समझे । जब हम किसीको तुच्छ जानते हैं तब आप तुच्छ हो जाते हैं, क्योंकि वास्तवमें वहाँ आप ही विराजमान होते हैं और वह आपकी ही एक मॉकी होती है। अपने अज्ञान करके वास्तवमे उस वस्तुका अनादर नहीं होता, बल्कि अपनी प्रति. क्रियासे हम आपके ही अपमानके अपराधी वन बैठते हैं। हरेहरे, हे प्रभो ! हमसे ऐसी भारी भूल फिर कभी न हो।
म्म सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुं दोउ कर जोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेप पृ१० पर देखें) (६) मनोवल-वर्धक-प्रार्थना हे अन्तर्यामी देव ! हे मेरे साक्षीस्वरूप! हे मेरी आत्मा! हे सर्वात्मा! सर्व कर्ता तू ही है । तेरे सिवाय इस संसारमें है ही कौन, जिसको कर्तारूपसे ग्रहण किया जाय ? दुःख-सुख सबका दाता तू ही है और तेरो सव चेष्टा हमारी भलाई के लिये ही है। दुःख तेरा महाप्रसाद है, जो तू अपने प्रेमियोंके लिये ही कृपा फरता है। जिस प्रकार कुम्हार धड़ोंको अवेमें रखकर पकाता है, कञ्चे घट तो किस कामके, वे तो जलको धारण ही क्या करेंगे, जरा-सी ठोकर लगते ही फूट पड़ते हैं। इसी प्रकार हे मेरे निजामन् ! तू भी हमारे ऊपर दया करके हमारे हृदयरूपी घटोंको दुःस-सन्तापम्पी अवेके भीतर रखकर पकानेका कष्ट कर रहा है, जिससे ये हृदय जरा-जरा-सी ठोकरोंसे फूट न जावें और परमानन्दरूप अमृतको धारण करनेमें समर्थ हो। धन्य है, हे कल्याणस्वरूप! तेरी चतुराईको वारम्बार धन्य है ! परन्तु हे मर्वमाक्षी थोड़ी धीमी-धीमी अग्निसे सेको, बहुत तेज अग्नि में घटोंके फूट जानेका भी भय है। हम अभी तेरे नन्हे बालक