Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 523
________________ ( २५ ) बीच में ही अपनी टॅगड़ी अड़ाकर मैं कर्ता हूँ' इस अभिमान करके वृथा अपने गलेमें फॉसी डाल लेना ही इसका प्रयोजन रह जाता है और कुछ नहीं ! शरीरमें भोजन खानेके पीछे मल, मूत्र, सप्त धातु आदि । वननेपर्यन्त असंख्य अवस्थाएँ भोजनकी बनती हैं और लखोखा क्रियाएँ प्रत्येक घड़ी शरीरमें वर्त रही हैं जिनका इसको प्रत्यक्ष भी नहीं । परन्तु उन प्रत्येक अवस्था व क्रियाके ऐन नीचे तरङ्गोंमें जलके समान आपकी सत्ता हाजिर है, आपकी सत्ता विना किसी भी क्रियाका उद्बोध सम्भव नहीं। फिर जो काम इसकी जानकारीमें हो रहे हैं, उनमें भी इसका अभिमान धार लेनेके सिवाय और कोई लगाव नहीं। पॉवके चलनेमें, हाथके हिलनेमें, नेत्रादिके देखने में, मन-बुद्धिके सोचने में शरीर व दिमाराके अन्दर असंख्य नाड़ियोंमें असंख्य चेष्टाएँ होती हैं जिनसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं, परन्तु आप उन प्रत्येक चेष्टाके ऐन नीचे विराजमान हैं, प्रत्येक बौद्धिक विकासमें आपकी हो ज्योति है। . अरे तुच्छरूप अहङ्कार ! अव मैंने जाना है कि तू निस्सार है और तू मेरे अनर्थके लिये है। तेरा होना मेरे व्यवहार व परमार्थक नाशके लिये ही है, तू आया कि सभी आपदाएँ व विघ्न हाजिर हुए। इस शरीररूपी विलमें सर्पके समान बैठा हुआ तू ही अपनी फुत्कारसे मुझे तपानेवाला है, अब मैंने अपना चोर पकड़ा है, मेरे आत्मधनको चुरानवाला तू ही है। हे प्रभो! अपना वह बल प्रदान करो जिससे हम इस शत्रुको जय करें, आपके चरण-कमलोंके अनुरागी हों और सच्ची शान्तिके भागी बनें हाथसे जो कुछ करें वह आपकी सेवा हो,पॉवों से चलें वह आपकी परिक्रमा ही हो, जो देखे आपका रूप देखें, जो खावें वह आपका प्रसाद हो और जो पीवें वह आपका चरणामृत ही हो । सवको अपनी आत्मा जानें किसीको तुच्छ

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