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( १८ ) कुटन्त्र-परिवारकी आपकी धाय वनकर सेवा करें और ममत्व करके किसी प्रकार कुटम्बके सुख-दुःखसे लेपायमान न हों। मंसारके भोग रोगरूप हैं,ऐसी कृपा करो कि आपकेचरण-कमलों मे कदापि विमुख न हों और फिरकमी ऐसे दुःखोंका मुँह न देखें। शरीरसे जो कुछ करें वह आपकी ही सेवा हो, पॉवोंसे चलें वह मव आपकी परिक्रमा हो, आँखोंसे जो कुछ देखें उसमें आपका रूप ही निहारें, कानोंसे जो कुछ सुनें वह सब आपका गुणानुवाद ही हो, जो कुछ खावें वह आपका प्रसाद हो और जो कुछ पीवें वह सब आपका चरणामृत ही हो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर बोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ.३० पर देखो)
(६) क्रोधदमन-प्रार्थना । हे भगवन् ! इस मनुष्य-जन्मका फल यह भोग नहीं, किन्तु चित्तको शान्ति ही इस जीवनका मुख्य लक्ष्य है। हे प्रभो ! ये विषयभोग तो अनन्त योनियोंसे हमको प्राप्त होते आये हैं अब तक इनक संयोगसे शान्ति न मिली । वल्कि अधिकाधिक अग्निमें घृतकी आहुतिके समान इन्होंने चित्तको चञ्चल ही किया, फिर आगेको इनके सम्बन्धसे शान्ति प्राप्त होगी इसकी क्या आशा की जा सकती है ? शोक है कि हम अशान्तिमें शान्ति हूँढते रहे
और शान्तस्वरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे । आप दयालू हैं हम दीन हैं, पित्ताके समान आप हमारे अपराधोंको क्षमा करें और हमको अपना बल दें कि हम सुखस्वरूप आपके चरण-कमलोंका आश्रय कर दुःखस्वरूप संसार-समुद्रसे तर जावें और अक्षय शान्तिको प्राप्त हों।