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( १७ ) लगावें और अपना वह सच्चा बल हमको प्रदान करें कि जिससे इस संसारके किसी पदार्थको हम इस शरीरके नातेसे ग्रहण न करे, किन्तु प्रत्येक वस्तुको सीधा आपके नातेसे ही धारण करें। इस प्रकार जो कुछ भी हम करें वह आपकी भक्तिके लिये हो, जो खावे वह आपका प्रसाद हो, जो पीवें सो आपका चरणामृत हो, ऑखोंसे जो कुछ देखें आपका रूप ही देखें, कानोंसे जो कुछ सुनें आपका गुणानुवाद ही हो, पांवोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा ही हो और मुखसे बोलें वह आपका कीर्तन ही हो। इसप्रकार संसारके कष्टोंसे किसी प्रकार चित्तमें कायरता न लावें।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥
(शेष ट १० पर देखो) (५) शोकहरण-प्रार्थना हे भगवन् । आप कल्याणस्वरूप हैं, कल्याणमूर्ति हैं और कल्याणके समुद्र हैं। आप कल्याणस्वरूपसे कोई बुराई कैसे निकल सकती है ? सूर्यसे अन्धकार कैसे प्रकट हो सकता है ? सच मुच बुरे हम हैं, जो आपको करणीमें बुराई-भलाईकी कल्पना करके तपते रहते हैं। जिस प्रकार बच्चे के शरीरमें उत्पन्न हुए फोड़ेको जर्राह चीरा लगाकर उसकीपीप निकाल देता है,परन्तु मूर्ख बालक जर्राहके उपकारको न समझ उल्टा रुदन करता है, इसी प्रकार हे स्वामी ! आप भी हमारे संसाररूपी रोगकों दूर करनेके लिये करुणा करके समय-समयपर हमारे हृदयमें चीरा लगानेकी
कृपा करते हैं, परन्तु हम अपनी मूर्खता करके आपके उपकारको ..अनुपकार करके मान लेते हैं और उल्टा आपके अपराधी वन
जाते हैं।