Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 513
________________ कन्जा जमाते रहे । अब हम सच्चे दिलसे आपकी चीज घर-बार, कुटुम्ब-परिवार आपके चरण-क्रमलोंमें भेट करते हैं। जब हम इस शरीरमें न थे तब भी ये पदार्थ किसी-न-किसी रूपमे मौजूद थे और आपके ही थे। तथा जब हम इस शरीरमें न रहेगे, तब भी ये पदार्थ किसी-न-किसी रूपमे रहेगे और आपके ही होकर रहेंगे । वीचमे ही हमने इनको अपना माननेका भारी अपराध किया है। जो चीज़ पहले भी हमारी नहीं थी और बादमे भी हमारी न रहेगी, बीचमे ही उसको अपना मान बैठना अमानत में खयानत है। अब आप हमपर दया करें, हमारी बुद्धिको निर्मल करें, हमको अपना वह वल दें कि जिससे फिर कभी इस अपराधके अपराधी न बने । दुःख केवल यही है कि करने करानेवाले जो आप हैं, उन आपको हमने अपने हृदय सिंहासनसे नीचे उतारकर हम खुद करने करानेवाले (स्वयं प्रमु)वन बैठे हैं। जो कुछ हम चाहते हैं वह कभी नहीं होता, होकर तो वही रहता है जो आपको मजूर होता है ।यह मन मूर्ख है जो अपनी भूल करके आपकी मर्जीपर सन्तुष्ट नहीं रहता और बीचमे ही अपनी टॉग अड़ाकर आप ही चिन्तारूपी अग्निमें जलता रहता है। अरे मूर्ख मन ! तू क्यों नहीं अपने प्रभुपर भरोसा करता ? वह विश्वम्भर जो संसारका भरण-पोषण करनेवाला है, क्या तुझे ही नहीं भरेगा ? इस अपराध करके ही हे पापी ! तूने आप ही अपने गलेमे बन्धन पाया हुआ है,औरतो कोई तुमको बाँधने वाला है नहीं। तेरे इस दोष करके न यहाँ ही तुझे विश्राम मिलता है और न वहाँ हो। काहेको सोच करे मन मूरख ! चोंच दई सोई चिन्त' करेगी। पॉव पसार पड़ो क्यों न सोवत, पेट दियो सोई पेट भरेगो।। जीव जिते जलके थलके, पुनि पाहनमें पहुँचाय धरेगो। मूखहि भूख पुकारत है नर, सुन्दर तू कहा भूख मरेगो॥

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