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हे प्रभो ! इस मनरूपी बन्दरने हमारे इन शरीररुपी घृतको हिला रक्खा है, एक क्षणके लिये भा यह टिकने नहीं देता । चश्चल मन निशदिन भटकत है ।एजी भटकत है मटकावत है। ज्यों मर्कट तरु ऊपर चढकर । डार डार पर लटकत है ।। रुकत यतन से क्षण विषयनते । फिर तिन्हीमें अटकत है ।। कॉपके हेत लोम कर मूरख । चिन्तामणिको पटकत है ।३। ब्रह्मानन्द समीप छोड़कर । तुच्छ विषयरस गटकत है ।४। __ यही एक ऐमा पिशाच हमारे पोछे लगा हुआ है, जिमने हमको आपके चरण-कमलोंसे विमुख कर रखा है। हेम इसके आगे हार पड़े है और आपके चरणकमलोंमें दुहाई है, श्राप अपनी इस मायाको समेटिये । वास्तवमे तो दुःख भी आपका भेजा हुआ एक दूत है, जोकि हमारे कल्याण के लिये ही है।
और यदि हम ठोक-ठीक आपकी आज्ञाका पालन करने लग पडे, तब फिर तो दुःखका कोई निमित्त ही नहीं बन पड़ता। दुःखके मूलमे केवल ससारको अता-ममता ही है, जबकि अहंता-ममता सचाईसे आपके चरण कमलोमे भेट कर दी जाय तो दुःखका कोई प्रयाजन ही नहीं रहता हमारा प्रयोजन तो केवल आपकी मरजापर मन्तुष्ट रहकर आपसे अभेद रहने में ही है। आप परम दयालु है, जो हमारी करणोपर ध्यान न देकर अपनी करणीसे नहीं चूकते हैं। हे प्रभो । ये संसारके भोग जिनमे, हम फैसे पड़े हैं, नीच योनियोंमे भी हमको प्राप्त थे। इस लिये इस मनुष्य जन्मका फल ये भोग नहीं, किन्तु आपके चरणकमलोकी प्रीति हो इस जन्मका मुख्य फल था, जिसमें हम अब ' तक वञ्चित रहे । अव आप दया करें हमारी डूबती नावको पार