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[साधारण धर्म अभी मोक्ष नहीं होना चाहिये और आजतक किसीकी भी मुक्ति न होनी चाहिये । इसमे तो शुकादिका मोक्ष-प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र-वचन भी अमंगत हो जाएंगे तथा मोक्षनिमित्त जीवोंका पुरुषार्थ भी निष्फल ही रहेगा। क्योंकि मुख्य-जीवका मोक्ष हुए बिना तो किसी की भी मुक्ति असम्भव ही है और जब उसकी मुक्ति होगी तब स्वतः ही दूसरोका मोक्ष हो जायगा। संसार अभी विद्यमान है ही, इससे सिद्ध होता है कि मुख्य-जीव अभी मुक्त नहीं हुआ तथा शुकादि किसीकी भी मुक्ति नहीं हुई।
यद्यपि ऐसी शङ्काका सम्भव है, तथापि अब हमको इस विषयकी खोज करनी चाहिये कि वह मुख्य-जीव कौन है ? इसका निर्णय होनेपर ये सभी शङ्काएँ निवृत्त हो सकती है।
(६७) 'मुख्य एक जीव है। इस वचनका तात्पर्य किसी एक जीवको अमुकत्व रूपसे मुख्य-जीव निर्देश करनेमे नहीं है । किन्तु इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रवा-जीव अपनी-अपनी दृष्टिमे अपनी-अपनी सृष्टिका मुख्य-जीव है और अन्य दृश्य-जीव जीवाभास हैं । परन्तु वह द्रष्टा-जीव अपने अज्ञान करके जीवाभासोमे भी अपने ममान मुख्य-जीबोकी कल्पना करता है और ज्ञानसे पूर्व उन जीवाभासोमेसे किसी-किसीको मुक्त मानता हुआ दुसरो मे अपने समान बद्धकी कल्पना करता है तथा अपने और दूसरो के मोक्षमे संशय करता है कि यह भी मेरे समान द्रष्टा-जीव ही है
और अपने-अपने कर्मों करके बंधे हुए हैं। यह सव अज्ञानकी महिमा है, ज्ञान हुए पीछे निश्चय करता है कि मुझ साक्षीसे भिन्न न कुछ था, न है और न होगा। जैसे देवदत्तकी सृष्टिमे देवदत्त मुख्य-जीव है और यज्ञदत्त-सोमदनादि जीवाभास हैं, यज्ञदत्तकी सृष्टिमे यज्ञदत्त मुख्य-जीव है, देवदत्त-सोमदत्तादि जीवाभास हैं तथा सोमदत्तकी सृष्टिमे सोमदत्त मुख्य-जीव है, यज्ञदत्त देवदत्तादि