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[ साधारण धर्म कारणरूप द्रष्टा ही जब चेतनका विवर्त सिद्ध हुश्रा, तब कार्यरूप दृश्यका अत्यन्ताभाव स्वतःसिद्ध है । इस रीतिसे चेतन नित्यमुक्त है और उसमें किसी भी द्रष्टा, दर्शन व दृश्यका कदाचित् कोई लेप नहीं होता। __इस रीतिसे पवित्र विचारोने हृदयम अपना घर बनाया, उपसंहार } विरोधी विचारोके लिये कोई अवकाश न रहा और अहङ्कारका बेड़ा गरक हो गया। इस प्रकार हमारा आत्मदेव 'त्वमेवाहम्' (तू ही मैं हूँ) भावसे निकलकर 'शिवोऽहम्' (मै शिवस्वरूप हूँ) भावमें प्रारुढ हो गया और सत्त्वगुणसे निकलकर गुणातीत पदमें जा टिका। इस स्थलपर पहुँचाकर और अपने वास्तविक लक्ष्यको प्राप्त कराकर धर्म अपने ऋणसे उऋण हुआ। सब कर्तव्यों और सब विधि-निषेधोको छुट्टी मिली, अपने लक्ष्य पर पहुँचाकर उन्होने अपनी कमर खोल दी और अपने निजस्वरूपमे विश्राम पाया । वैताल व प्रकृति अपनी ही छाया सिद्ध हुए और अपने निज प्रकाशमे देखा गया तो उनका पता भी न चला फि कहाँ गये ? त्यागको भेटोकी पूर्णाहुति हुई और त्याग का भी त्याग सिद्ध हुआ। सब कुछ करके भी कुछ न करना ही मनको भाया । अहंभावकी स्थितिमे प्रकृति जहाँ नाक चने चया रही थी और नाकमे नकेल डालकर नचा रही थी, उसको ज्यों-कात्यों जाना तो अब दासीके समान चरणसेवा करती है।
भीपास्माद्वातः पवते भीपोदेति सूर्यः।
भीपास्मादग्निरचन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥ अर्थात् हमारे भयसे ही वायु चलता है, हमारे भयसे ही सूर्य उदय होता है और हमारे भयसे ही अग्नि, इन्द्र व मृत्यु यह पाँचों भागे फिरते हैं।