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( १२ । "काल चिरैयाँ चुग रही निशिदिन आयुखेत'
हे स्वामी ! संसाररूपी दलदलमे मै धस रहा हूँ, पॉव टिकने का कोई आधार नहीं पाता । आप अपने चरण-कमलोंका सहारा दीजिये, नहीं तो अपने पतित-पावन नामके निष्फल होनेपर फिर आपको भी पछताना पडेगा। दया करो, अपना बल दो
और बुद्धिको निर्मल करो, जिससे फिर कभी आपके पदार्थोंको अपना न मानें । हे नाथ ! ये भोग तो नीच योनियोंमे भी हमको प्राप्त थे, इस लिये इस मनुष्य-योनिका फल ये भोग नहीं, किन्तु आपके चरण-कमलोंकी प्रीति ही इस जन्मका मुख्य फल हो सकता है, जिससे हम अभीतक ठगे हुवे रहे। अब आप हमारी नौकाको पार लगावें। हमारे मुफेद बालोंकी ओर देखें और वह शक्ति दे कि जो कुछ हम करें आपकी सेवाके निमित्त ही हो जो खावें वह आपका प्रसाद हो । जो पीवे वह आपका चरणामृत हो, जो ऑखोंसे देखें उसमें आपका रूप ही देखें,जों कानोंसे सुनें वह आपका गुणानुवाद हो । पापोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा हो और हाथोंसे जो कुछ करे वह आपकी ही सेवा हो। हे प्रभो। यह सव परिवार तो शरीरके साथ ही है , जब इस शरीरने ही साथ नहीं देना, तब इस परिवारने तो क्या साथ देना है । सथा नाता तो आपका ही था, उसे हम मुला बैठे। हाय ! मैं अनाथ मारा गया, इस मनने मुझे धोखा दिया । हे नाथ ! आपकी दुहाई है इस पापीसे मेरी रक्षा करो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ. १० पर देखो)