Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 508
________________ चरणोंमें भेट करते हैं। आप हमको वह बुद्धि बल दे कि फिर कभी इनको अपना न मान बैठे और श्रापके आज्ञाकारी मुनीमकी भॉति आपके कुटुम्बकी सेवा करे । जो आज्ञा श्राप हमको हमारी बुद्धिमें देवे उसका सचाईसे पालन करे। जो खावें वह आपका प्रसाद हो, जो पीवे वह आपका चरणामृत हो, पावोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा हो, हाथोंसे जो कुछ करें वह आपकी ही सेवा हो, आँखोंसे आपका रूप ही देखे और कानो से सुने वह आपका गुणनवाद ही हो। मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥ स्वीकारह हाथन को हे श्रीमहाराज ! तव सेवा के कारणे मैं अपं आज ॥२॥ नयन मोर स्वीकारहु है श्रीजगदीश ! भक्ति धुन्ध है जावें मैं नाऊँ शोश ॥३॥ चित्त मोर स्वीकारहु तुम अहो सुजान ! मन्दिर होय तुम्हारो कछु हेतु न पान ॥४॥ हिय मोर स्वीकारहु हे अति निष्काम् ! तव मूरति हिय वसे सब सुख की धाम || अस न रहे कछु मोपे जो होवे मोर । फुरे मोर सब तुममें नाहीं दूसर ठौर ॥६॥ १. ऐसी कोई वस्तु मेरे पास न हो जिसको मैं अपने भ्यक्रिगत

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