Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 507
________________ शोक है हम प्रशान्तिम शान्ति हूँढते रहे और शान्तिस्वरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे। अब हम सब तरफ से हारकर आपके द्वारपर आ पड़े हैं। आप दयालु हैं हम दीन हैं, पिताके समान आप हमारे अपराधोंको क्षमा करें और हमको अग्ना वह सच्चा बल निमसे सुखस्वरूप आपके चरणकमलोंका सहारा पकड़ दुखरूप संसार-समुद्रसे तर जाएँ। हे भक्त वत्सल । श्राप शरणागत प्रतिपाल है,हम आपकी शरण हैं। हम पतित है आप पतितपावन हैं। हमारे अवगुणोंकी और देखकर न भागो, बल्कि अपने पतितपावन नामको सफल करो। हमारी ओर देखनेसे हमारा उद्धार न होगा, आप समदी हैं अपनी ओर देखें । जिस तरह गन्दे नालेको शरणगत जान गगा अपनेमे मिलाकर गङ्गा ही बना लेती है, जिस तरह पारस खोटे-खरं लोहेका विचार न कर उसे छूते ही खरा सोना वना देता है, इसी तरह अाप अपनी ओर देख हमारा उद्धार करें। हे नाथ | अब आपकी कृपा से हमने यह जाना है कि संसारमें दुःखका कारण और कुछ नहीं, केवल पदार्थोकी ममता ही हमारे दुःखका कारण बनती है। धन, पुन, घी आदि जो कि वास्तवमें हमारे नहीं है हमारे इस शरीरमें पानेसे पहले भी यह किसी न किसी रूपमें थे और आपके ही थे। जव हम इस शरीरमें न रहेंगे तब भी यह किसी न किसी रूपमें रहेगे और आपके ही होंगे। वीचमे ही इन पदार्थोंको अपना मानकर हमने अपनेको दुःखी किया है। जो चीज़ पहले भी हमारी न हो और बादमे भी हमारी न रहे, वह वीचमे ही हमारी कैसे हो सकती है । वीचमें भी यह उसीकी होनी चाहिये जिसकी आदि व अन्तमे रहे। वीचमें यह पदार्थ केवल हमको अमानतमे दिये गये हैं हम अपनी भूल से वीचमें ही अमानतमें खियानत करके आपके अपराधी वन बैठे हैं । अव इम सच्चे दिलसे आपकी चीज आपके कारण बनती है । धनानसे पहले भी बन रहेंगे

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