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( ११ ) (२) रागहरण-प्रार्थना हे भगवन् ! आप दयालु हैं, दयाकी मूर्ति हैं । यद्यपि आप के हम अपराधी हैं, परन्तु हैं आपके ही वालक । आप पिताके समान हमारे अपराधोंको क्षमा करें। हमसे भूल हुई कि धनपुत्रादि आपके पदार्थोंको हम अपना मानते रहे । जिस प्रकार रात्रिको मुसाफिर सरायमें इकट्ठे हो जाते है,उसी प्रकार यह आप का परिवार इकट्ठा हो गया है,प्रभात होते सब अपने-अपने रास्ते लगेंगे। परन्तु इस मूर्ख मनने इनपर ममत्व करके कब्जा कर लिया है और इसी अपराध करके यह तप रहा है। अब मैं सच्चे दिलसे श्रापकी चीज़ आपके चरणों में भेट करता हूँ। जब मैं इस शरीरमें नहीं था,तब भी ये पदार्थ किसो-न-किसी रूपमें थे और
आपके ही थे और जब मैं इस शरीरमें न रहूँगा, तब भी ये श्राप के ही रहेंगे। बीच में ही इनको अपनानेका भारी अपराध मेरे से हुआ है। ..अरे मन ! अब तो चेत कर । अरे मूर्ख ! तूने मुझे बहुत दुखी किया है। बन्दरकी भॉति आप ही पदार्थोसे मुट्ठी भरकर तूने आप ही अपनेको वन्धायमान किया है । अव तो इनसे छूटकर सुखसागर भगवान्की शरणमें चल, जिससे तू और मैं दोनों शान्ति पावें। अब तो प्रभात होनेको आई सफर सिरपर सवार है। शरीरके नातेसे अपनी जान, किन्तु सर्व ममतारूप व्यवहार भापके नातेने फुरे। जिसप्रकार सेवक अपने स्वामीके पदार्थोंमें ममताका व्यवहार करता है,मर्यात् भाप स्वामीका वनकर स्वामीके पदायाँको स्वामी नावेसे अपना मानता है, अपने व्यक्तिगत पारीरके नातेसे कदापि नहीं। इसीप्रकार मेरा सर्व ममतारूप व्यवहार भापमें फुरे, मन्यन्न नहीं। "देखो टिप्पण अरमाविलास प्र, खं-पृ. ६०-६१