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( २ ) जरायुज इन चारों खानियोंमे क्रमशः जैसे-जैसे भावोंका विकास होता जाता है वैसे-वैसे ही उनका अपना-अपना भव (संमार) विकसित होता जाता है। भावोंकी उत्तरोत्तर न्यूनताकी ही दृष्टि से मनुष्यकी अपेक्षा पशु, पक्षी व कीटादिका संसार क्रमक्रमसे तुच्छ होता है और भावोंकी न्यूनतासे ही देवोंकी अपेक्षा मनुष्यका संसार तुच्छ होता है। अर्थात् मनुष्यका मंसार अमरीका, यूरोपतक ही विस्तृत है, परन्तु देवताओका संसार सात समुद्र व सात द्वीपोतक विकसित है। वर्तमान संसारमें जितने भी द्रव्य, गुण व क्रियादि हैं उन सबकी सिद्धि अपने-अपने भावोंके अधीन ही होती है। अर्थात् वे.द्रव्य-गुणादि पदार्थगत नही हैं, किन्तु अपने-अपने भावानुसार भावगत ही हैं। इसीलिये एक ही वस्तु एकके लिये कटु दूसरेके लिये मिष्ट, एकके लिये उष्ण अन्यके लिये शीतल तथा एकके लिये शुभ व पुण्यरूप और दूसरेके लिये अशुभ एवं पापरूप सिद्ध हो जाती है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि इन सब विलक्षणताओंमे केवल भावोंकी विलक्षणता ही हेतु है। (विस्तारके लिये देखो आत्मविलास द्वि. खं पृ. १६३-१९७ ) | इसी लिये कहा भी है कि:
भवोऽयं भावनामात्र न किञ्चित् परमार्थतः । - अर्थात् भावनामात्र ही संसार है, परमार्थसे संसारका कोई रूप नहीं है।
इसी लिये अपनी-अपनी भावनाके अनुसार संसारका स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकारका होता है । सकामीके लिये यह भोगरूप, निष्कामीके लिये उद्धाररूप, भक्तिमानके लिये भगवानकी छविरुप, वैराग्यवानके लिये अग्निकाण्डरूप और ज्ञानवानके लिये यही संसार परमानन्दरूप सिद्ध होता है। अर्थात् 'यह संसार हमारे भोगके लिये ही रचा गया है, इसलिये