Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 502
________________ कहलाती। किन्तु ऐसी अवस्था तो मनकी सुपुप्त व लयावस्था ही होगी, जो कि किसी वास्तविक फलका हेतु नहीं हो सकती। क्योंकि शुद्वभावोद्गार के बिना केवल क्रियात्मक मनोनिगेध तो ऐसा ही होगा; जैसे किसी फोड़ेके भीतर पीप भरी रहनेपर भी ऊपरसे वह चमडा लाल-लाल टीम पड़े। बुद्विमान डॉक्टर की दृष्टिमे यह चमड़ेकी उत्तम अवस्था नहीं मानी जाती, किन्तु यह तो भयङ्कर अवस्था ही समझी जाती है। मनकी वास्तविक उत्तम अवस्था तो वहा है कि स्वार्थत्यागमय शुद्ध श्राचार व विचारद्वारा प्रथम सकाम-भावांको दूर किया जाय और निष्काम-भाषाका प्रयाह चलाया जाय । तदनन्तर निष्काम-भावोंके प्रभावसे जीवनका लक्ष्य संमार न बनाकर ढ़तासे परमार्थ ही जीवनका निशाना स्थिर क्यिा जाय । इस प्रकार सांसारिक कासना व बासनासे पल्ला छुड़ाकर शुद्ध प्रेमामक्तिके भावोंका प्रवाह चलाना और किसी एक भाव पर मनका अचल हो जाना, यही वास्तवमै मनको एकाग्रता है, जिसके द्वारा मल-विक्षेपादि दोप वस्तुत. निवृत्त होजाते हैं, और इन दोपोंके निवृत्त हुए स्थिर शान्ति इसी प्रकार प्राप्त होती है, जिस प्रकार फोडेसे पीप निकल जानेपर विश्राम मिलता है। विपरीत इसके इस मार्गसे मुँह मोड़ कर यदि क्रियात्मक चेष्टाओद्वारा ही मनोनिरोध किया गया तो मल-विक्षेपादि दोपोंके विद्यमान रहते हुए वह सारी चेष्टा ऐसी ही होगी, जिस प्रकार घावको न धोकर पट्टीको ही धोते रहे तो इससे भीतरका रोग साफ न होने के कारण धावके अच्छे होनेकी आशा नहीं की जा सकती। ऐसी क्रियात्मक चेप्टाबोंद्वारा यद्यपि कुछ कालके लिये मनका निरोध (अर्थात् मनका लय) सम्भव है, परन्तु उत्थान कालमे मलविक्षेपादिके ज्यों के त्यों बने रहनेके कारण वे किसीप्रकार स्थिर शान्ति प्रदान नहीं कर सकतीं। क्योंकि शुद्ध भावोद्गारके बिना

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