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केवल प्राणनिरोधके द्वारा मनको इसी प्रकार रोक दिया गया था, जिस प्रकार दौड़ते हुए घोड़ेको पकड़ कर सवारको रोक दिया जाय । इस प्रकारका मनोनिरोध न मूलमें शान्ति ही देता है, न मल-विक्षेपाढि ही निवृत करता है और न संसारका मूल जो परिच्छिन्न अहङ्कार है, उसको ही किसी प्रकार निवृत्त कर सकता है। बल्कि बहुत करके सम्भव है कि मल-विक्षेपादिके रहते हुए शुद्ध भावोद्गार विना वह मनोनिरोध अपने व्याज मे मनोनिरोधके अहङ्कारको और पुष्ट कर दे। ऐसा अहङ्कार फिर परमार्थका मार्ग ही वन्द कर देता है; न यह सन्तजन व सच्छास्त्रके वचनों में ही विश्वास करता है और न उनकी युक्तिको ही मानता है, किन्तु बिलाड़ निकालकर अन्दर ऊँट घसा लेनेकी कहावत मिद्ध हो जाती है ।
इसके विपरीत शुद्ध प्रेमा-भक्तिके भावोंके प्रवाहमें ही एक ऐसी शक्ति है जो अपने प्रभावसे इधर मल-विक्षेपादि दोपों को हृदयसे निकाल फेंकता है और उधर परिच्छिन्न-अहङ्कारकी मूलको मी हिला देता है तथा स्थिर शान्ति प्रदान करता है।
संसारमें प्रेम ही एक ऐसी वस्तु है जो आपेकी चलि लेने में समर्थ है, दूसरी किसी वस्तुमे ऐसा मामर्थ्य नहीं है। अपने भोग-कालमें स्त्री-पुत्रादिका तुच्छ प्रेम ही जव आपा खो देता है, तक परमार्थसम्बन्धी शुद्ध-सात्त्विक प्रेम परिच्छिन्न-अहङ्कारकी समूल बलि ले लेवे तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? दृष्टान्त स्थल पर देख सकते हैं कि रासलीलाके समय जब भगवान् गोपियोंकी (दृष्टिसे ओझल हो गये तव उनके हृदयसे वह प्रमा-भक्तिके भाव फूट निकले जिनके प्रभावसे उनको अपना-आपा ही विस्मरण हो गया और नाना प्रकारकी लीलाओंमें वे अपने-आपको कृष्णरूपमें ही देखने लगी । कोई कृष्णरूपसे कालिय नागको दमनकरती थीं, कोई अपने ही वनोंकी बॉसुरी बना-बनाकर वंशीनाद. निकालती