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मनकी एकाग्रता मनका क्या स्वरूप है ? इस विषयमें यदि विचार किया जाय तो यह सिद्ध होगा कि भावात्मक ही मन है। अर्थात् भावोंसे भिन्न मनका और कोई रूप पाया नहीं जाता, क्योंकि जिस कालमें मन भावशून्य हो जाता है, उस काल में वह अपने स्वरूपसे कुछ भी नहीं रहता। मनकी भावशून्य अवस्था सुपुप्ति अथवा लय ही है। यदि 'भावोंके विना मनका अपना कोई स्वतंत्र रूप होता तो इसका पता उम कालमे भी मिलना चाहिये था जव कि भावोंका अभाव हो जाता है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि जब जाग्रत् व स्वप्नमें मन अनेक भावरूप तरङ्गोंमें तरजायमान होता रहता है वमी उसका स्वरूप भी पाया जाता है। परन्तु सुपुप्त अवस्थामे भावोंका लय हो जाता है तो उसका भी कुछ स्वरूप नहीं मिलता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि 'मन भावात्मक ही है' और भावके विना मनका अपना कोई स्वरूप नहीं है। . . .' . भाव क्या है ? किसी भी आकार, विचार अथवा सङ्कल्प के रूपमें मनका स्फुरण होना,तरजायमान होना 'भाव'कहा जाता है। इधर यदि संसारके विषयमें विचार करे तो भावोंसे भिन्न संसारका भी अपना कोई स्वतन्त्र रूप नहीं मिलता । जैसेजैसे जिसके भाव होते हैं वैसा-वैसा ही उसका अपना भव (संसार) होता है । वल्कि कहना पड़ेगा कि यह लोक ही नहीं, किन्तु क्या लोक,क्या परलोक सभी लोककी सृष्टि जीवके अपनेअपने भावोंके अधीन ही होती है । जीवके अपने भावोंके विना न लोककी सिद्धि होती है न परलोककी। उद्भिज,स्वेदज,अएंडज व