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[ साधारण धर्म अन्य जीवाभासोका बन्ध सम्भव है, मोक्षप्रतिपादक शास्त्र सफल हैं और मोक्षनिमित्त पुरुषार्थ भी सफल है। अपने पुरुषार्थद्वारा इस द्रष्टा-जीवके ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर सब संसारकी मुक्ति निर्भर है और बद्ध-मुक्तकी सव कल्पनाएँ असत्य हो जाती हैं। प्रश्नकर्ताके इस प्रश्नका कि 'मुख्य-जीव कौन है ?? स्पष्ट उत्तर यही है कि 'वह मुख्य-जीव तू ही है और नेरे ही मोजसे संसारकी मुक्ति है। वस्तुतः तो संसारका त्रिकालाभाव है, परन्तु तूने ही अपने संकल्पसे ससारको खड़ा किया हुआ है। तू ही अपने अज्ञानस्वप्नमें संसारकी रचना कर रहा है, तेरी ज्ञानजागृति हुई कि संसार तो पहले ही नित्य-निवृत्त है, संसारकी उत्पत्तिका तो सम्भव है ही नहीं।'
(६) योगवासिष्ठ भापा, निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्द्ध सर्ग १८३ में भगवान् वसिष्ठ इसी आशयको यू पष्ट करते हैं :___ "हे रामजी! जीवोको औरकी सृष्टिका ज्ञान नहीं होता, अपनी ही सृष्टिको जानते और देखते हैं, क्योकि संकल्प भिन्न-भिन्न है। कितनोंके (अज्ञान) स्वपमें हम स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं और कितने हमारे (अज्ञानरूपी) स्वप्नमें स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। वे और सृष्टिमें सोये है और हमारी सृष्टि उनको अपने स्वप्नमे भास आई है, तिनके हम स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। और जो हमारी सृष्टिमें सोये है, हमारे स्वप्नमे उनकी और सृष्टि हमको भास आई है, सो हमारे स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। हे रामजी ! इस प्रकार आत्म-तत्त्वके श्राश्रय अनन्त सृष्टियाँ भासती हैं, जो जीव सृष्टि को सत् जानकर विचरते हैं वे मोक्षमार्गसे शन्य हैं।"
(७०) इस स्थलपर पहुँचकर तीनो मतोकी सङ्गति भलीभॉति हो जाती है।