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आत्मविलास]
[२०६ द्वि० खण्ड
इस प्रकार परमार्थरूपी वृक्ष ऐसा फला-फूला कि कुछ न पूछो। सब ओर श्रानन्द ही श्रानन्द टपकने लगा, सब वस्तुएँ अानन्दकी ही झाँकी देने लगी और दुखरुप संसार आनन्दस्वरूपमें बदल गया । मोतीमे अपनी ही झलक, हीरेमे अपनी ही दमक, सूर्य-चन्द्रमामें अपनी ही चमक, वायुमे अपनी ही रमक, नेत्रोमें अपनी ही खटक आनन्द देने लगी। सब सुन्दरोमें अपना ही सौन्दर्य प्रास्वादन होने लगा, सब वस्तुएँ अपने ही सौन्दर्य के याचक प्रतीत हुए और सब अपने ही सौन्दर्यके भिन्न-भिन्न चमकार भान होने लगे। अपना निजानन्द मैला न हो जाय, इस निमित्त अनेक नाम-रूपके दृष्टिरूपी पडदोंके नीचे उसको छुपाना चाहा, परन्तु न छुपा और अपने यौवनमे ऐसा मचला कि किसी प्रकार दवाये न दवा।
नहीं छुपती छुपाये वू छुपाओ लाख पडदोंमे । मजा पडता है जिरा गुलपैरहन को वेहिजाबीका ।।
रात्रिके घोर अन्धकाररूपी पडदे उसके मुखपर डाले गये तो उस कृष्णरूपमें ही फूट निकला और तारोमें ऑखे फाड़-फाड़कर देखने लगा । गहन पर्वतोकी चादरोके नीचे उस सौन्दर्यको दबाना चाहा, परन्तु दवा कहाँ ? वह देखो ! अणु-अणु में अपनी सत्ता के दर्शन दे रहा है और अपनी जड़ताकी चादरोमे आनन्दके खर्राटे मार रहा है । गम्भीर समुद्रोमे उस निजानन्दको रूपोश करना चाहा, परन्तु रूपोश कहाँ ? वह देखो | उछल-उछलकर आनन्दकी बलइयों ले रहा है । पश्च-कोशोके पाँच-पाँच गिलाफ भी उसके मुँहपर डाले गये, तब भी क्या हुआ ? वह देखो! नीली-नीली आँखोमे अपना जल्वा दे रहा है और असंख्य मनोवृत्तियोमें नृत्य कर रहा है। फिर सूर्यादिके चमकीले पतले पड़दों