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[ साधारण धर्म अन्याकार-दृष्टिका किसी भी रूपसे प्रतिवन्धक नहीं हो सकती। जिस प्रकार सूर्यमें सब प्राणियोंकी प्रकाशमय-दृष्टि उलूककी अन्धकारमय-दृष्टिका विरोध नहीं करती। इस प्रकार सम्मुख देशमें अनेक घट अनुपलब्धिकी शङ्का सर्वथा निर्मल है और सिद्धान्तको न जान करके ही है। जितने द्रष्टा हैं उतने ही घटो का सम्मुख देशमें सम्भव है और प्रत्येक द्रष्टाकी अपनी दृष्टिमें श्राभासंरूप ही घट है, आभासरूप होनेसे वे सब घट परस्पर देशका निरोध नहीं कर सकते।
(६४) अथवा जैसे किसी विशाल दर्पणमे पर्वतादिका प्रतिविन्ध पड़ रहा हो तो दर्पणमे पर्वतादिक उत्पन्न नहीं होते, अधिधानरूप दर्पणमें केवल देखनेवालोंकी अपनी-अपनी दृष्टिमात्र ही पर्वतादिक होते हैं। जितने मनुष्य उन पर्वतादिक प्रतिविम्योंके 'द्रष्टा है, अधिष्टानरूप दर्पणमें उतने ही पर्वतादिककी उपलब्धिकी
आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि अधिष्ठान-दर्पणके आश्रय "अपनी-अपनी दृष्टिमें ही उनकी स्थिति है, वास्तवमें तो दर्पणमें
एक भी पर्वतादि नहीं, हुए ही नहीं और हैं ही नहीं। तैसे ही 'चेतनरूपी महान आदर्शमे घट-पटादि पदाथोंका आभास होता है, सो देखनेवालोंका अपना-अपना संकल्प ही घट-पटादिरूप होकर चेतनके श्राश्नय फुरता है। चेतनमे घट-पटादिकी उत्पत्तिरूप सृष्टि नहीं, किन्तु दृष्टिमात्र ही सृष्टि है और क्या द्रष्टा व क्या घश्य सव आमासमात्र ही हैं और सब दृश्य ही हैं। इस प्रकार जितने जीव हैं उतने ही ब्रह्माण्ड प्रतीत होने चाहिये और जितने द्रष्टा हैं उतने ही घट-पटादिकी उपलब्धि होनी चाहिये, यह आपत्ति तत्वके अज्ञान करके ही है। वास्तवमें तो एक भी ब्रह्माण्ड वा एक भी घट-पदादिकी उत्पत्ति नहीं हुई, किन्तु द्रष्टाओं की अपनी-अपनी संकल्पहप राष्टियोंमें ही पदार्थों की पुष्टि होती