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श्रामविलास ]
[ १६४ __द्वि० खण्ड किन्ही भी दो उद्भिजोंका रूप एक जैसा न हुआ है, न होगा। प्रकृति-दृष्टि से भी कोई आम्रफल खट्टा है तो कोई मीठा, कोई घडा कोई छोटा, कोई अधिक उपए कोई सामान्य उष्ण । इस प्रकार सब जातिवाले उद्भिज्जोंमें प्राकृतिक वं प्राकृतिक भेद प्रमाणित हो सकता है । जब कि उन योनियोमें भी, जिनमें केवल अन्नमय कोशका ही विकास है और प्राणमय-मनोमयादि कोशका अभी विकास नहीं हुआ, प्राकृतिक व प्राकृतिक भेद पाया गया, तब जिन योनियोंमें प्राणमयं व मनोमयादि कोश भी विकसित हुऐ हैं, उनमें व्यक्तिगत श्राकृति, प्रकृति व रुचिका भेद हो, इसमें श्राश्चर्य ही क्या है ? अण्डज-योनिवाले कपोत-मयूरादिमें व्यक्तिगत प्रकृति व रुचिका भेद स्पष्टरूपसे प्रमाणित होता है। प्राकृति का भेद तो निर्विवाद है ही, मनुष्य उनके मुण्डके भुएड पालते हैं, उस झुण्डमें देखा जाता है कि किसीमे प्रेमका विकास अधिक होता है, कोई अधिक पालतू होते हैं कोई न्यून । कोई-कोई साधने से ऐसे भी सब जाते हैं, जिनके द्वारा दूतकार्य भली-भाँति लिया जाता है। तोते, मैना श्रादि पक्षियोंमें देखा जाता है कि किसी की प्रकृति स्वभाविक क्रूर होती है और किसीकी शान्त । जरायुज-योनिम जहाँ कुछ बौद्धिक विकास हो पाता है, वहाँ कुत्ते, गौ, अश्वादिम तो प्रकृति व रुचिका व्यक्तिगत भेद स्पष्ट ही है। किसीम कोष, किसीमें शान्ति, किसीमें राग, किसीमे द्वप, किसी में कला-कौशलकी न्यूनता और किसीमें अधिकतास्पष्ट रूपसे पाई जाती है। तथा मनुष्य, देव, पितरादिमें जहाँ बुद्धिका पूर्ण घिकान है. यहाँ तो श्राकृति, प्रकृति व रुचिका भेद निर्विवाद ही है, क्योकि गर्व मेदोके मूलमें निमित्तरूप विकासको प्राप्त हुई ससारी बुद्धि ही है। . (६०) शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध पश्च वियरूप ही