________________
१५]
[साधारण-धर्म संसार है। पञ्च विषयोको छोड़कर देखें तो संसारको गन्धमान भी नहीं मिलती। इन पञ्च विपयोंमे भी विलक्षणताप्रतीति स्वाभाविक है। सूर्य जो सबके लिए प्रकाशरूप व तेजपुञ्ज है, उलूक
और चमगादड़ आदि पक्षियोके लिए अन्धकारका गोला है । सर्व साधारणके लिये सूर्य सुखदाई है, परन्तु सिंह-व्याघ्रादि व चोरादिके लिये दुःखदाई है। चन्द्रमा जहाँ सबको सुखदाई व शीतल है, वहाँ चकवा-चकवी पक्षीको दुःखदाई और विरही पुरुषों के लिये दाहक है। अग्नि सवकी दृष्टिसे उष्ण स्पर्श है, परन्तु अग्निकीटके लिये शीतल है। निम्ववृक्ष जो सबके लिये कटु है, ऊँट-बकरी के लिये मधुर है। मल-मूत्रादि जो सबके लिये दुर्गन्ध है, वही विष्टाकीट और चाण्डालके लिये दुर्गन्धरहित सिद्ध होता है। जो शब्द एकके लिये प्रिय है वह अन्यके लिये भयङ्कर वन जाता है। सिंहका शब्द सिंहके लिये प्रिय है, परन्तु दूसरोके लिये भयकर। सम्मुख देशमें स्थित घट चिउँटीके प्रत्यक्ष-प्रमाणमें पर्वततुल्य है, परन्तु हाथीके प्रत्यक्ष-प्रमाण अत्यन्त तुच्छ है। इसी प्रकार शब्दभेद, स्पर्शभेद, रूपभेद, रसभेद व गन्धभेद स्पष्ट प्रमाणित होता है।
(६१) यदि सृष्टि एक ही होती तथा किसी एक ही व्यक्ति द्वारा रची गई होती, तो इस प्रकारकी विलक्षणता प्रकट न होनी चाहिये थी । उष्ण वस्तु उष्ण ही रहनी चाहिये थी, शीतल शीतल ही, प्रकाश प्रकाश ही रहना चाहिये था, अन्धकार अन्धकार ही, कटु कटु ही रहना चाहिये था, मिष्ट मिष्ट ही। परन्तु इसके विपरीत जो एकके लिये उष्ण है वह दूसरेके लिये शीतल, जो एक के लिये प्रकाश है वह दूसरेके लिये अन्धकार, जो एकके लिये कटु है वह अन्यके लिये मिष्ट और जो वस्तु एककी दृष्टिमें पर्वत*परिमाण है वह दूसरेको दृष्टिमें तुच्छ-परिमाण । प्रमाज्ञानके