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आत्मविलास 1 द्वि० खराड
पदार्थों में प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षका भ्रम हो जाता है कि वही ये पदार्थ हैं जो पूर्व जाग्रत्मे थे । वास्तवमे तो सब ही प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष भ्रमरूप ही हैं, परन्तु निरन्तर प्रतिदिन भ्रमको दृढ़ता करके कि 'वही ये पदार्थ हैं, वही ये पदार्थ हैं, इस प्रत्यभिज्ञा-भ्रममें ही सत्यत्वबुद्धि स्थिर हो जाती है। इसका रहस्य यह है :
अज्ञानद्वारा मिध्या जायतअनुभव में सत्यबुद्धि धारकर जब हम अन्य अवस्थामे जाते हैं, तब उन अनुभवजन्य संस्कारोको सत्यरूपसे ग्रहण करके अपने अन्तर ले जाते हैं । उस अवस्थासे उठनेके उपरान्त उत्तर- जाग्रत्में फिर वे ही संस्कार उद्बुध होकर उन पूर्व पदार्थोंके सजातीय अन्य पदार्थ सम्मुख खड़े कर देते हैं, क्योकि संस्कार ही उन पदार्थोके हेतु हैं। अधिष्ठानरूप परमात्मा तो सम व चेतन है और सर्वसाक्षी है, इसलिये जैसा - जैसा संस्कारोका उद्बोध होता है, वैसी वैसी ही प्रतीति वह अपने आश्रय करा देता है । जैसे जब-जब दर्पण में हम अपना मुख देखते हैं तब-तब उसमे सजातीय मुख ही प्रतीत होता है, परन्तु ' दर्प के अज्ञान से पूर्व संस्कारोंके आवेशमे श्राकर सजातीय मुख मे तत्ता-भ्रम हो जाता है कि यही यह मुख है जो कल देखा था । तैसे ही अधिष्ठान चेतन के अज्ञानसे पूर्व संस्कारोके आवेशमे सजातीय जाग्रतमे जीवको सत्ताका भ्रम हो जाता है कि वही यह जाग्रत्-प्रपञ्च है जो कल देखा था, क्योकि जैसा जैसा उस afragran ear संकल्प होता है तथा जैसा जैसा संस्कारोका उद्बोध होता है, वैसा-वैसा ही सिद्ध होता है। इस रीविसे अनुभबमे सत्यत्वबुद्धिसे संस्कारोंमे सत्यता और संस्कारोमे सत्यत्वसे अनुभवमें सत्यताफा प्रवाह चत पड़ता है। इस प्रकार अनुभवजन्य उदद्बुध-संस्कार मिथ्या पदार्थोंमे सत्यबुद्धि और भी कराते चले जाते हैं । प्रकृतिमें यदि संस्कारोंका उद्बोध