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आत्मविलास]
[१२ द्वि० खण्ड जैसे नटवा एक स्वाँग अपने अन्दरसे निकालकर लाता है और उस स्वॉगको अपनेमे लय कर दूसरे स्वाँगमें प्रकट होता है तथा जव अपना खेल कर चुकता है तब सव स्त्राँगोको अपनेमे लय कर अपने स्वस्वरूपमे स्थित रहता है।
जाग्रत्मे स्वप्नकी स्मृति होनेका कारण यह है कि जाग्रतअवस्थामे वह प्राज्ञ सत्त्वगुणसम्पन्न होता है, जिससे जाग्रत्अवस्थाके ज्ञान व व्यवहार टिकाऊ प्रतीत होते हैं और अवस्था टिकाऊ होनेसे संस्कारोका उद्बोध भी होता है। परन्तु स्वप्नअवस्थामें वह प्राज्ञ रजोगुण करके आच्छादित रहता है, इसीलिये उस कालमें अवस्था बड़ी चञ्चल रहती है और उस चम्बल दशामें अन्य अवस्थाके संस्कारोंका उद्बोध असम्भव हो जाता है । जैसे तीव्र वेगसे वहते हुए जलमे जलके अन्तःस्थित मृत्तिका के परमाणुओको यदि बालोडन किया जाय तो वे जलके ऊपर श्राकर स्थिर रूपमे नहीं रह सकते, तत्काल बह जाते हैं, परन्तु स्थिर तालजलमें परमाणु ऊपर आकर कुछ कालके लिये टिके हुए रहते हैं। इसी प्रकार स्वप्न अवस्था चञ्चल होनेसे उसमें संस्कारोका उद्बोध नहीं होता, उद्वोध भी हो तो स्थिरता नहीं होती, परन्तु जाग्रत् अवस्थामे सत्त्वगुणकी प्रधानतासे संस्कारो का उदबोध व स्थिरता दोनो होते हैं।
(४६) इम प्रकार जाग्रत्मे स्वप्नकी स्मृति होनेसे जाग्रत्को स्वप्नके प्रति कारणता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती, क्योकि स्वप्न का अनुभव कर्ता जाग्रत् अन्त'करण नहीं पाया गया, किन्तु जाग्रत् व स्वप्न दोनों ही इस प्राज्ञके खेलनेकी रङ्गभूमियाँ जानी गई। एक रङ्गभूमिमें बैठकर उसने देखा और दूसरीमें आकर स्मृति की, तो इससे उन भूमियोमे कारण-कार्यता नहीं हो सकती, किन्तु कारणरूप तो वह खेल करनेवाला ही हो सकता है। तथा