________________
आत्मविलास
[१८० द्वि० खण्ड अन्तःकरण न होनेसे प्रानरूप-जीवको ही इन मवका अनुभवकर्ता मानना होगा। वही राजाधिराजके समान कमी अपने भीतरसे जाग्रत् अवस्थारूपी दरवारको निकालता है और त्रिपुटीरूप अपनी लीलाओको देखता है। और जब यहाँसे थकता है तब अपने इस दरबारको भन करके स्वप्न अवस्थारूपी रनिवासमे प्रवेश करता है और कभी सवको लयकर अपने निजी महल सुपुप्ति-अवस्थामे विनाम करता है।
(४७) 'अन्त'करण' शब्दका अर्थ है 'अन्तर्ज्ञानका साधन', और जो ज्ञानका साधन है वह ज्ञानका कर्ता नहीं हो सकता। जिस प्रकार खड्ग छेदनरूप व्यापारका साधन होनेसे का नहीं हो सकता। साधनसे कर्ता सदैव भिन्न ही होता है, छेदन-व्यापार का कर्ता तो वह पुरुप ही हो सकता है जिसके हाथमें खड्ग है। इसी प्रकार ज्ञानका साधन होनेसे अन्तःकरण ज्ञानका क्र्ता नहीं हो सकता, ज्ञानका कर्ता तो केवल प्राज्ञ जीव ही हो सकता है। क्या जाग्रत्-अन्तःकरण व जामत्के सस्कार और क्या स्वप्नअन्तःकरण व स्वप्न-सस्कार अपने-अपने कालमे उसीमें लय होते हैं और उसीसे निकलते हैं तथा मरण-अवस्थामे तो जाग्रत् व स्वप्न दोनों ही अन्तःकरण संस्कारोसहित उसीमें स्वरूपसे ही लीन हो जाते हैं। इसीलिये सर्व सस्कारोंका सश्चितरूप कोष वह प्राज्ञ ही है और उसमेंसे ही जो संस्कार प्रारब्धरूपसे उबुध होते हैं, वे ही जन्मान्तरके भोगकी सामग्री बन जाते है और पुनजन्मके हेतु होते हैं।
(४८) उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि:-(१) जाग्रत् व स्वप्नमें अन्तःकरण एक नही किन्तु भिन्न-भिन्न है। (२) अन्तःकरणरूप-प्रमाताका ही भेद नही किन्तु इन्द्रियरूप-प्रमाण तथा