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[साधारण धर्म अप्रमेयका भी भेद है। स्वप्नमें इन्द्रियाँ नवीन ही अन्तःकरणके साथ उत्पन्न होती हैं, उस समय जाग्रत्इन्द्रियों अपने अन्तःकरण में लीन होकर रहती हैं। (३) और यह भी सिद्ध हुआ कि जामन् तथा स्वप्नके अनुभवजन्य सस्कारोंका आश्रय एकमात्र प्राज्ञ ही है, न जाप्रत्-अन्तःकरण ही संस्कारोका आश्रय हो सकता है और न स्वप्न-अन्तःकरण । क्योकि आधारभूत अन्तःकरण ही जब लयको प्राप्त होता है, तब वह श्राधेयरूप संस्कारों का आश्रय कैसे रह सकता है ? जिस प्रकार देह य इन्द्रियॉ जब आप ही अपने स्वरूपसे लय होते हैं वय वे सस्कारोके आधारभूत नहीं रहते, इसी प्रकार अन्तःकरण भी लयस्वरूप होनेसे
और गुणोंका कार्य होनेसे संस्कारोका आधारभूत नहीं हो सकता। यद्यपि इसमे संस्कारोका उद्बोध होता है, तथापि संस्कारोका आश्रय तो यह कारणरूप-प्राज्ञ ही होगा जिसमें अन्तःकरणका लय होता है।
वह प्राज्ञ ही जब अपने निजालय-हृदयाकाशसे निकलकर नेत्रोमे अपना श्रासन लगाता है, तब वही अपनेमेसे अन्तःकरण और इन्द्रियादि-त्रिपुटी निकालकर जाग्रत्-अपञ्चको देखता है और 'विश्व' नामसे पुकारा जाता है । जब यहाँसे उपराम हो कण्ठगत हितानामा नाड़ीमें प्रवेश करता है, तब जाप्रत्-प्रपञ्च व निपुटीको अपनेमे लय कर स्वप्न-त्रिपुटीको अपनेमेसे निकालता है और स्वप्न-प्रपञ्चको देखता है तथा 'तेजस' नामसे कथन किया जाता है, वास्तवमे इन सबका अनुभव-कर्ता वह एक ही है। और वही सुषुप्तिमे दोनो अवस्थाओंके संस्कारोको, अनुभवके साधन अन्तःकरण-इन्द्रियादिको तथा उन अवस्थाओके श्योंको अपनेमें लय करके हृदयाकाशमें निजस्वरूपसे स्थित रहता है।
इन्द्रियादि-प्रमाणद्वारा जिस वस्तुका मन हो वह 'प्रमेय' कहलाता है।