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[ साधारण धर्म (५३) इस प्रकार यह जीव वस्तुत: शिवरूप होते हुए भी अज्ञानरूपी मदिराको पान करके मिथ्या पुण्य-पापके आवेशसे वसिष्टमत, वाचस्पतिमत ) आप ही अपने लिये स्वर्ग-नरककी रचना
और एक जीववाद निर। पण तथा उक्त तीनों करता है। यहाँ प्रश्न होता है कि जब मताको परस्पर संगति, J सर्व कर्ता-धर्ता यह आप ही है, तब दुःख की इच्छा तो कोई भी नहीं करता, इसलिये सादि नीच योनियों की प्राप्ति तो किसीको भी नहीं होनी चाहिये । यद्यपि यह सत्य है, तथापि जैसे बड़े-बड़े धनी पुरुप मदिरादिके आवेशमें श्राये हुये न करनेयोग्य भी अपने लिये करना पसन्द करते हैं, उसी प्रकार यह आत्मदेव मिथ्या कर्तृत्वाभिमानद्वारा अनिष्ट कर्मोंके प्रभावसे अपने लिए न करनेयोग्य भी करना पसन्द करता है
और अरुचिकरमे भी रुचि करता है। यह सब हमारी अपनी ही कल्पना नहीं स्वयं भगवान्के वचन इसकी साक्षी देते हैं:
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
(गी अ. ५. श्लो. १४-१५) अर्थ:-परमेश्वर तो वास्तवमें भूत-प्राणियोंके न कर्तापनको, न कर्मोको और न कर्म-फल-संयोगको ही रचता है, किन्तु परमामाकी साक्षीमें स्वभाव (प्रकृति) ही इन सब व्यापारोंमे वर्त रहा है। सर्वव्यापी परमात्मा तो न किसीके पाप कर्मको ही ग्रहण करता है और न शुभ कर्मको, किन्तु अज्ञानद्वारा वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा ढका हुआ है, इसी अज्ञानसे सर्व जीव मोहित हो रहे है (और कर्ता-कर्तव्यादिके चक्रमें पड़े भ्रमते हैं)। .. :