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आत्मविलास ]
[१६ द्वि० खण्ड ही 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्' के चक्रमे पड़ जाता है। आप ही संसारको अपने अन्दरसे निकाला परन्तु इसको न जानकर कि यह संसार मेरा ही चमत्कार है, अपने अज्ञानद्वारा आप ही इसमे भेदबुद्धि की तथा उस भेद-बुद्धि के प्रभावसे अनुकूल प्रतिकूल ज्ञानद्वारा राग-द्वेप व पुण्य-पापके चक्रमे भ्रमने लगा जैसे मकड़ी आप ही अपने अन्दरसे जाला निकालकर श्राप ही उसमें फंस मरती है। धन्य है ! इस मायाको विचित्रताको जिसने बाजीगरके बन्दरकी भाँति अजर-अमरको जरा-मरणके कल्पित-बन्धनमे वाँध लिया। जाग्रत् व स्वप्नमें भेद तो तब हो जब कि जामत् प्रपञ्च कुछ बाहर धना हो; परन्तु वस्तुत: बाह्य कुछ भी नहीं है, केवल फलोन्मुख सूक्ष्म-संस्कार ही साक्षी-चेतनकी सत्तासे स्थूलाकारमें वाय प्रतीत होते हैं। जैसे सिनेमाके खेलमें फिल्मके ऊपर अङ्कित सूक्ष्म आकार, विद्युतकी सत्तासे बाहर पड़देपर स्थूलरूपमें बिना हुए ही प्रतीत होते हैं तथा जैसे स्वप्न-अपश्च अपने संस्कारोंके अनुसार अन्तःस्थित ही अपनेसे भिन्न बाह्य प्रतीत होता है। सारांश, जाग्रत् व स्वप्नमें कोई भेद नहीं है,यह जीवात्मा श्राप ही अपनी कल्पित अविद्यासे बन्धायमान हुआ श्राप ही जामत्-स्वप्न प्रपश्चकी रचना करता है
और अपने अज्ञान करके इनमें सत्य-असत्यकी कल्पना करता है तथा अपनेसे भिन्न जान असत्यमे सत्यबुद्धि करके मिथ्या कर्तृत्वाभिमानद्वारा अपनी प्रकृतिसे बंधा हुआ जन्म-मरणके प्रवाहमें थहा चला जाता है। परन्तु जब सद्गुरु व सच्छाखकपा और अपने पुरुषार्थद्वारा अपने वास्तविक स्वरूपका साक्षात्कार कर लेता है, तब अविद्याके बन्धनसे मुक्त हुआ ज्यूं-का-त्यू शिवस्व. रूप ही रहता है और आकाशके समान अपनेमें किसी प्रकार कोई लेप नहीं देखता।