________________
१७७]
[ साधारण धर्म प्रतीति है, इसलिये दोनोका एक उपादान अनुभवानुसारी नहीं।
(४४) समाधान :-वास्तवमें तो सत्यता न जाग्रत्-प्रपञ्च में अपनी है और न स्वप्न-प्रपञ्चमें ही अपनी, किन्तु अधिष्ठानचेतनकी सत्यता ही अपने-अपने समयपर दोनोमे प्रतीत होती है
और उसकी सत्तासे ही ये दोनो असत् हुए भी सत्तावान् प्रतीत होते हैं। इसलिये जैसा अपने कालमे जाग्रत्-प्रपञ्च सत् भान होता है, वैसा ही अपने कालमे स्वप्न-प्रपञ्च भी सत् प्रतीत होता है । 'यह स्वप्न-प्रपञ्च मिथ्या है और यह स्वप्न है। ऐसी प्रतीति तो स्वप्न कालमे किसीको भी होती नहीं है, अतः दोनोंमें ही सत्यताप्रतीति अधिष्ठानके अज्ञान करके ही है। अधिष्ठानके ज्ञान विना कभी 'वह प्रपञ्च सत्य है और कभी 'यह प्रपञ्च सत्य है' ऐसी सत्यताप्रतीति दोनोके परस्पर विरोधी ज्ञान करके ही होती है। जैसे रज्जुमे रज्जुके अज्ञानसे कभी 'यह सर्प है। ऐसी प्रतीति होती है और कभी 'यह दण्ड है। ऐसा ज्ञान होता है। तहाँ रज्जुके ज्ञान विना ही सर्पप्रतीतिसे दण्डप्रतीति और दण्डप्रतीतिसे सर्पप्रतीतिकी निवृत्ति हो जाती है तथा दोनो प्रतीतियाँ भ्रमरूप ही होती हैं । इस प्रकार अधिष्ठान-रज्जुके अपरोक्ष विना एक भ्रम-ज्ञानसे दूसरे विरोधी भ्रमज्ञानकी निवृत्ति हो जाती है, सो अधिष्ठानके ज्ञान बिना परस्पर विरोधी ज्ञानोसे ही होती है। इसी प्रकार जाग्रत्-प्रपञ्चकी प्रतीतिसे स्वप्नप्रतीति मिथ्या हो जाती है और स्वप्नप्रतीतिसे जाग्रत्प्रतीति मिथ्या हो जाती है तथा दोनों ही भ्रमरूप हैं। अपने स्वरूपसे असत् हुए भी अधिष्ठान चेतनकी सत्तासे अपने-अपने कालमें दोनो ही सत् प्रतीत होते हैं और अधिष्टान-चेतनके अपरोक्ष होनेपर दोनो ही मिथ्या हो जाते हैं । इस प्रकार इन दोनोंका परिणामी-उपादान सुषुप्ति. अवस्थारूप मूलांज्ञान ही जानना चाहिये। ..