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[ साधारण धर्म , स्वप्नमे अनिर्वचनीय रथ, अश्व व मार्गकी उत्पत्ति वर्णन की है।
और जब कि स्वप्नपदार्थाकी उत्पत्ति मानी गई, तब उन पदार्थोके योग्य देश-कालकी अपेक्षा होनी चाहिये, जामत्के अल्प देशकालको उनके प्रति आधारताका असन्भव ही है। . (४१)वास्तव दृष्टिले तोक्याजाग्रत्-प्रपञ्च और क्या स्वप्न-प्रपञ्च दोनोंका परिणामी-उपादान मूलाविद्यारुप सुपुप्ति-अवस्था ही है । सुषुप्तिसे ही जाग्रन् प्रपञ्च निकलता है और सुषुप्तिसे ही स्वप्तप्रपञ्च, तथा दोनोका तब भी सुषुप्तिमें ही होता है। जाग्रत्के पश्चात् जब स्वप्न आता है तब जाग्रनका लय स्वप्नमे नही होता, किन्तु सुयुप्तिमे ही होता है और फिर सुषुप्तिसे ही स्वप्न-प्रपञ्च निकलता है। जाग्रत् और स्वप्न के मध्यमें सुषुप्तिका आना आवश्यक है, चाहे वह सुपुप्ति क्षणिक हो अथवा क्षणके किसी अशमे ही हो; परन्तु दोनोंके मध्य सुपुप्तिका होना जरूरी है। जैसे नाटकघरमे सानमतीके खेलके पड़दे जब खुल चुके और खेले जा चुके, तव हरिश्चन्द्रका खेल बारम्भ होनेसे पहले प्लेटफार्मको साफ कर लेना जरूरी है। इसी प्रकार जब जामत्के भोग अपना फल देनेसे उदासीन हो जाते हैं और स्वप्नभोग फलके सम्मुख होते हैं, तब जाप्रत्-अपञ्चका सुपुप्तिमें लय होना आवश्यक है, जिससे स्वप्न के भोगोको अवकाश मिले । क्योकि क्या जानतू-भोग और क्या रवन-भोग दोनोका कर्ता-भोक्ता सुयुप्ति-अवस्थाभिमानी प्राज्ञनामा जीव ही है और ये दोनो अवस्थाएँ इसके मोगकी सामग्री व भोगस्थल हैं। वहीं प्राज्ञ जाग्रत् और स्वपमें विश्व व तेजसरूपसे
जो वस्तु स्वयं कार्यरूगमे परिवर्तित हो, उसको परिणामी-उपादान' कहते हैं। सुपुष्ति-अवस्वाभिमानी जीवका नाम 'प्राज्ञ' है।
जायन्-श्रवस्माभिमानौ जीवका नास 'विध है। +स्वप्न-अवस्थाभिमानी जीवका नाम 'तेजम' है।