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आत्मविलास
द्वि० खण्ड कारणता तब सिद्ध हो, जब कि जाग्रत-देश काल स्वतन्त्र हो
और स्थिर हो । परन्तु जैना पीछे (अध ६ से २६ मे) विवेचन किया जा चुका है, जाग देशकाल जाग्रत पदार्थोके साथ अन्योऽन्याश्रयरूपसे समकालीन ही उत्पत्ति-नाशवान है, वे स्वतन्त्र नही और स्थिर भी नहीं । जो वस्तु अपने स्वरूपसे चलायमान है और स्वतन्त्र भी नहीं, वह किसी अन्यका आधारभूत कैसे बन सकती है। अर्थात् जाग्रत देशकाल जाग्रत-पढाथोंके प्रति ही जब कारणरूप सिद्ध न हुवे. तव स्वप्न-सृष्टिके प्रति वे कारण कैसे बन सकते है ? __ दूसरे, वेदान्त-सिद्धान्तमं भ्रमस्थलमें + अनिर्वचनीय-ख्याति का अङ्गीकार किया गया है, जिसका यह श्राशय है कि जो भी ज्ञान होता है वह सविपयक होता है, निर्विपयक-ज्ञान अलीक है। अर्थात् ज्ञानके साथ विपय भी उत्पन्न होता है, विषयके विना केवल ज्ञान ही नहीं होता। इरा सिद्धान्त के अनुसार स्वप्नज्ञानके विपय पदार्थ भी स्वकालमें उत्पन्न होते हैं। श्रुतिभगवती भी स्वप्नपदार्थोकी उत्पत्तिकी साक्षी देती है :'न तत्र स्थान रथयोगा न पन्थानो
__ भवन्त्यथ रथारथयोगान्पथः सृजते ।। इस श्रुतिमें व्यवहारिक रथ, अश्व व मार्गका निषेध करके
सत्व असत्से विलनणको 'अनिर्वचनीय' कहते हैं, ऐसा यह जाग्रत् जगत् है। तीनो कालमै जिसका प्रभाव न हो उसको ‘सन्' कहा जाता है, परन्तु यह जगत् ऐसा हे नहीं, इसलिये सत्से विलक्षण है। तथा तीनों काल ने जिसकी प्रतीति न हो उसको 'सत्' कहते है, जैमे शश, पन्ध्यापुत्रादि, परन्तु यह संसार प्रतीत होता है, इसलिये असत्से भी विलक्षण होनेसे 'अनिवचनीय' कहा जाता है।