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[ साधारण धर्म (२८) इस प्रकारसुवर्ण-मृत्तिकादि अधिष्ठान चेतनके विवर्त होनेसे आप ही नहीं तो भूपणादि कार्योंको कैसे उत्पन्न करें? तथा कल्पितरूप होनेसे जब कार्य बना ही नहीं तो सुवर्ण मृत्तिकादिमे कारणना कैसे सिद्ध हो ? इसी विचारमे न तो द्रव्यके थाश्रय गुण व क्रिया है और न धर्मीके श्राश्रय धर्म है। किन्तु सभी सम्बन्ध और अनुयोगी-प्रतियोगी अपने अधिष्ठान-चेतनके विवर्त्तमात्र हैं। क्योकि सभी आधार व श्राधेय त्रिविध-परिच्छेदवाले होनेसे स्वसत्ताशन्य भायमात्र हैं और अपने अधिष्ठानचेतनके आश्रय केवल प्रतीतिमात्र हैं। जैसे दर्पणमे प्रतीत हुआ तो मुखरूप-द्रव्य, श्वेत-पीतादिक मुखके गुण और हिलन-चलन श्रादि मुखकी क्रिया, ये सब दर्पणस्थ मुखकेाश्रय नहीं, किन्तु क्या मुख, क्या गुण व क्या क्रिया सभी दणके आश्रय हैं। दर्पणके अज्ञानसे मुखमे आश्रयता तथा गुण-क्रियामे आश्रितताप्रनीति भ्रम है।
(३६) जामनके क्षणिक-काल और कण्ठगत हितानाड़ीजात व स्वप्रयभेद ) नामा अल्प-देशमें ही यद्यपि स्वप्न-सृष्टि के दीर्घकान और विस्तृत-देशकी प्रतीति होती है, तथापि जाग्रत्के क्षणिक-काल व अल्प-देशको आधारता और स्वप्नके दीर्घ-काल व विस्तृत-देशको आधेयताका अगीकार नहीं और सम्भव भी नहीं। किन्तु एक अधिष्ठान-चेतनके आश्रय ही क्या जाग्रत व क्या स्वप्न दोनोकी अपने-अपने समयमे प्रतीति होती है, इन दोनों में परस्पर कारण-कार्यता व आधाराधेयता मिथ्या है। जैसे नाटकघरके प्लेटफार्मपर पहले भानमतीके खेलके पड़दे खुलते हैं पश्चात् हरिश्चन्द्रके, परन्तु इन दोनोंमेसे आधाराधेय-भाव किसी में भी नहीं, केवल प्लेटफार्म ही दोनोका आधारभूत हो सकता है।
(४०) जाग्रत्-देश-कालको स्वप्न-सृष्टिके प्रति आधारता व