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[साधारण धर्म होती है, घटकी उत्पत्तिसे पूर्व घट-देशका भी अभाव था और घट-नाशके अनन्तर भी घट देशका अभाव हो जायगा, केवल घट-वर्तमान-कालय ही घट-देशकी सिद्धि होती है। इससे सिद्ध हुआ कि 'देश' को 'काल' तथा 'वस्तु की अपेक्षा रहती है, 'देश' की निरपेक्ष स्थिति नहीं रहती । जब कि 'देश' की स्थिति 'काल' तथा. 'वस्तु' के आश्रय है और 'काल' तथा 'वस्तु' क्षणपरिणामी हैं, तब देशका अपरिवर्तनशील रहना कैसे सम्भव हो सकता है ? कालरूपी पारेके नीचे सभी 'देश' व 'वस्तु' क्षण-क्षण करके विकृत हो रहे है। 'देश वही है। 'वस्तु वही है। इस प्रकार सर्व ही प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष भ्रमरूप हैं, क्योंकि जब 'काल' वही नहीं, तय 'देश' व 'वस्तु' वही कैसे रह सकते हैं ? पूर्वदृष्टवस्तुके संस्कारसहित उसी वस्तुकी अन्य प्रतीतिको प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष कहते हैं । इस रीतिसं 'देश' काल य वस्तु सापेक्ष ही सिद्ध हुश्रा ।
(१६) अब यदि काल-परिच्छेदका विचार किया जाय तो कालकी भी स्वतन्त्र स्थिति नहीं पाई जाती; किन्तु 'काल' को भी 'देश' तथा 'वस्तु' की अपेक्षा सिद्ध होती है। क्योकि काल का प्रवेश शुद्ध-वेतनम तो है नहीं, वह तो कालातीत है। यदि देशकृत तथा वस्तुकृत कोई विकार ही न हो तो कालकी गणना ही कैसे हो ? अजी। किसी विकारके साथ ही तो कालका
आरम्भ होगा, निर्विकारमें तो कालका कोई सम्बन्ध है ही नहीं। अजायते, अस्ति, पबद्धते, +विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति, मुख्य छः विकारोबाला ही प्रपञ्च माना गया है । जव वस्तु का जायते' रूप पहला विकार हो तब ही शेष विकारोंकी उत्पत्ति
का सम्भव होता है और तत्तत् विकारके साथ-साथ उस-उस . *सन होता है। मौजूद है। बढ रहा है। परिणामी होता है। रघट रहा है। नाश होता है ।