________________
आत्मविलास
[१७० द्वि० खण्ड द्वारा सिद्ध होता है, इसलिये कपाल-तन्तुसे घट-पटादि एक भिन्न ही वस्तु उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार कपाल-तन्तु प्रादिमें घटपटादिका श्रारम्भ होता है, परिणाम नहीं, ऐसा मानना चाहिये। यदि कपाल-तन्तु परिणामी हुये होते तो घट-पटादिकी उत्पत्ति हो जानेपर कपाल-तन्तु स्वस्वरूपसे न रहते, क्योकि स्वस्वरूपको त्यागकर अन्य रूपमे परिवर्तन होनेको 'परिणाम' कहते हैं, परन्तु कपाल-तन्तु तो अपने स्वरूपसे ज्य-के-त्य ही रहते हैं, इसलिये प्रारम्भ-वाद माननेयोग्य है और परिणाम-वाद असंगत है। चूंकि न्यायमतमे कार्यकी उपादानसे भिन्न नवीन उत्पत्ति मानी गई है, इसलिये न्यायमत 'असत्-कार्यवादी' कहलाता है, अर्थात् अपनी उत्पत्तिसे पूर्व कार्य असत् था।
(३५) परिणाम-वादी सांख्यका कथन है कि कार्य अपने उपादानमे एक सत्-वस्तु है, अर्थात् वह अपने उपाठानमें उत्पत्ति से पूर्व अनभिव्यक्त रूपसे रहता है। क्रियाद्वारा उस मत्-कार्यकी अपने उपादानमें केवल अभिव्यक्ति होती है और नाशके पश्चात् वह फिर अपने उपादानमें ही अनभिव्यक्तरूप हो जाता है। इस प्रकार उपादान कार्यरूपमे परिणामी होता है। यदि उपादान ज्यू-का-त्यू रहे और परिणामी न हो तो घट-पटादिकी उत्पत्तिके अनन्तर कपाल-तन्तुमे अन्य घट-पदादिकी उत्पत्ति होनी चाहिये। परन्तु कार्यकी प्रथम उत्पत्ति होनेके पीछे वे कपाल-तन्तु अन्य घट-पटादिके उपादान नही रहते, इसलिये परिणामवादका ही अंगीकार है और आरम्भवाद संगत है। चूंकि कपालमे घटको ही उत्पत्ति होती है पटकी नहीं, और तन्तुसे पेट ही निकलता है घट नहीं । इससे, जाना जाता है कि कपालमें घट ही रहता है
और तन्तुमे पट ही रहता है। इस प्रकार कार्य अपने उपादानम, नित्य रहनेसे सांख्यमत 'सत्-कार्यवादी' कहा गया है।