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[साधारण धर्म कोई भी पदार्थ प्रतीत नहीं होता जिसको प्राकृसिद्धम्पसे ग्रहण किया जाय और घट-पटादि कार्योक प्रति कारण माना जाय । हॉ, निर्विकार, अजर, अमर, परिच्छेदशन्य व भेदशन्य एक अधिष्टान-चेतन ही प्राकसिद्ध रूपसे ग्रहण हो सकता है और केवल यही सम्पूर्ण कारण-कार्यम्प प्रपञ्चके प्रति एकमात्र विवोंपादानकारण है । तथा क्या घट-पटादि कार्य, काा कपाल-तन्तु आदि कारण, क्या बुद्धिरूप ज्ञाता, वृत्तिरूप-ज्ञान व प्रपञ्चरूप शेय, ये सभी जरा परमउपादानके विवत्तरूप कार्य हैं, जो कि दर्पणके समान अपने अधिष्ठान चेननक पाश्रय प्रतीत होकर उसको स्पर्श नहीं कर सकते।
(३४) यह हमारी अपनी ही कपोल-कल्पना नहीं, अतिभगवती स्त्रय इम सिद्धान्तकी साक्षी देती है। छान्दोग्योपनिपत् छठे प्रपाठकके शासर-माप्यमे उहालक-श्वेतकेतुके सवादसे यही सिद्धान्त सुन्दर युक्तियोद्वारा प्रतिपादन किया गया है कि सम्पूर्ण कारण-कार्यरूप प्रपञ्च अपने अधिष्ठान चेतनका विवर्त्तमात्र है। संक्षेपसे जिसका आशय यह है :___ कारण-कार्यसम्बन्धमें नैयारिकोका 'आरम्भवाद', साख्यो का परिणाम-बाद' तथा वेदान्तका 'विवर्त्त-बाद' है। नैयायिकों का मत है कि उपादान कार्यरूप परिणामको प्राप्त नहीं होता जैसा सांस्यका मत है, बल्कि उपादान आप तो ज्य-का-त्यू ही रहता है और अपने उपाटानमें कार्य एक भिन्न ही वस्तु उपजती है। जैसे कपाल-तन्तु आदि उपादानमे घट-पटादि कार्योंकी उत्पत्ति हो जानेपर भी, कपाल-तन्तु अपने-आपसे ज्य-के-त्य ही रहते है और घर-पटादि कार्य अपने उपादान कपाल-तन्तुसे भिन्न नई ही वस्तु उत्पन्न होते हैं । क्योकि धारण व आच्छादनरूप व्यवहार कपाल-तन्तुद्वारा सिद्ध नहीं होता और घट-पटोदि