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[साधारण धर्म विषय मी उत्पन्न होता है । परन्तु जेय व नान मम-सत्तावाले ही हाग, जेय यदि भ्रमरूप है तो उसका ज्ञान भी भ्रमरूप ही होगा, नेय भ्रम हो और उसका ज्ञान यथार्थ हो ऐसा सम्भव नहीं। अस्तु, कपाल-तन्तु आदि कारणोंमें प्राक्मिद्धता प्रतीत तो अवश्य होती है, परन्तु कपाल-तन्तु आदि कारण विविध-परि
छेदवाले होनेसे वस्तुतः अपनी कोई सत्ता ही नहीं रखते, केवल भान-समकालीन उनकी प्रतीतिमात्र है. फिर उनमें अपनी प्राक्मिद्धता कहाँसे श्रावे ? और प्राक्सिद्धता हुआ यिना प्रतीत भी नहीं हो सकती, परन्तु यह प्राक्मिद्धता कपाल-तन्तु श्रादिमें अपनी नहीं, बल्कि अधिष्ठानचेतनस्थ प्रायमिद्धता उनमें इमी प्रकार दमक मारती है, जैसे जपा-पुष्पकी रतना जपा-पुष्पके अपर स्थित म्फटिकमें। इस प्रकार कपाल-तन्तु केवल अपने अधिष्ठान चेतनकी सत्तासे मत्तावान और उनीकी प्रालिद्वतामे प्राकसिद्ध प्रतीत होते हैं, वन्नुनः कपाल-नन्तु आदि कदापि प्रासिद्ध नहीं और न घट-पटादि कार्योके पनि फारण ही हैं। जैसे स्वप्नक पदार्थ वमनाशन्य होते हुए भी अपने अधिष्ठानचेतनशी सनाय प्राकमिनाले मन य प्रायगिद्ध प्रतीत होते है। तथा जैम राजुमें सर्प-भ्रम होता है. तर 'यह मां अगी उत्पन्न दामा जान नही होना, पल्कि 'इम मपंकी पूर्व यिनि ।
मा अमका आकार होता. मी शालयमें नो मर्पया निकालाभाय. मशापि प्रतिष्ठान-ग्लपी मनाने सपने मना और अभिधान-
सभी प्रारमिलान मपम प्रापनियतका महाना है, मी फार फायनान शादि कारणो प्रामिना भए
और पामिना-बान भी अमाप ही (६)भामा अपना मन नार R m मा मेगा मेल
द्वारा