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अात्मविलास]
द्वि० खण्ड सकती है ? जसे बन्ध्यापुन आप ही नही उपजा फिर वह किसी दुसरेको उत्पश करो कोगा?
(१४) शङ्का:-तुम्हारे उपर्युक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट हुआ कि 'काल' किसी क्षण भी स्थिर नहीं है और चलस्वरूप होनेके कारण व्यक्तित्वरूपसे नित्य नहीं है, परन्तु इससे 'देश' का चलखरूप व क्षणपरिणामी होना सिद्ध नहीं होता और न अनुभवमें ही आता है। दिन, रात, प्रहर, घड़ी, क्षण आदि करके 'कात' तो परिवर्तनशील प्रतीत होता है, परन्तु कालके समान 'देश' का परिवर्तन अनुभवविरुद्ध है।
(१५) समाधान -देखो जी । देश, काल और वस्तु इन त्रिविध-परिच्छेदोंका मत्ा, निर्विकार, शुद्धचेतनके स्वरूपमें तो प्रवेश पाया नहीं गया, जैसा ऊपर अङ्क ३, ४ व ५ में विवेचन किया जा चुका है, किन्तु प्रपञ्चमे ही इनका प्रवेश है और उक्त तीनो परिच्छेदोंका नाम ही प्रपञ्च है । अव यदि विचारसे देखा जाय तो देशकी स्वतन्त्र स्थिति कही भी नहीं पाई जाती, 'वस्तु' तथा 'काल' को श्राश्रय करके ही 'देश' की स्थितिका सम्भव होता है । यथा (१) देश-परिच्छेद किसी कालमे ही होगा, इस लिये 'देश' को 'काल' की अपेक्षा है। कालकृत-विकारके बिना देशकृत-विकार असम्भव है, क्योकि सव विकारोके मूलमे 'काल' ही हेतु है, यह सवके श्रनुभवसिद्ध है। (२) तथा कोई वस्तु-परिच्छेद उत्पन्न हो तब उस देशकी अपेक्षा होगी ही, यदि वस्तुकृत कोई विकार ही नहीं है तो 'देश' किसको हदमें वॉधेगा ? क्योकि सीमावद्ध करना ही 'देश' का फल है। और शुद्वचेतन तो किसी सीमामे है नहीं, वह तो असीम होनेसे सर्व सीमाओके पार है, इसलिये वस्तु ही सीमावद्ध होनेसे देश-परिच्छेदवाली है। जैसे घट-वस्तु व घट-कालकी उत्पत्तिके साथ ही घट-देशकी उत्पत्ति