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आत्मविलास]
[१५८ द्वि० खण्ड कालकी गणना भी होती है। जैसे देवदत्तकी उत्पत्तिके साथ ही देवदत्तोत्पत्ति-काल उत्पन्न हुश्रा और जितनी-जितनी अवस्थाएँ देवदत्तकी परिवर्तन हुई, वैसे-वैसे ही कालकी गणना होती गई। देवदत्तकी उत्पत्तिसे पूर्व देवदत्तोत्पत्ति-काल विद्यमान नहीं था, बल्कि देवदत्तकी उत्पत्तिके साथ ही देवदत्तोत्पत्ति-काल, देवदत्तके अस्तित्वके साथ ही देवदत्त-अस्ति-कालकी गणना हुई । तथा देवदत्तकी वृद्धिके साथ ही देवदन्त-वईन-काल, देवदत्तके परिणाम के साथ ही देवदत्त-परिणाम-काल, देवदत्त-क्षयके साथ ही देवदत्तक्षय-काल और देवदत्त-नाशके साथ ही देवदत्त-नाश-कालकी उत्पत्ति व गणना होती रही। किसी वस्तुकृत, अवस्थाकृत व देशकृत विकारके विना कालकी गणना असम्भव है, क्योकि प्रकृतिकी सास्यावस्थामें तो कालका सम्भव है नहीं। जब प्रकृति में कोई क्षोमरूप विकार उत्पन्न हो और प्रकृतिकी साम्यावस्था भन हो, तब उस क्षोभरूप विकारको आश्रय करके ही कालकी उत्पत्ति होती है। इससे सिद्ध हुया कि 'काल' की स्थिति भी निरपेक्ष व स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु 'देश' व 'वस्तु' को श्राश्रय करके ही कालकी स्थिति है।
(१७) शङ्का --देवदत्तकी उत्पनिके साथ ही देवदत्तोत्पत्तिकाल उत्पन्न हुभा~-तुम्हारा यह कथन अनुभवमे नही आता, क्योकि काल ब्रह्माण्डव्यापी है, इसलिये देवदत्तकी उत्पत्तिसे पूर्व भी काल विद्यमान है। तथा जिस कालमें देवदत्तकी उत्पत्ति हुई उसी कालरूप-व्यक्तिमे असख्य विकार ब्रह्माण्डमें उत्पन्न हुए हैं, फिर 'देवदत्तकी उत्पत्ति के साथ ही काल उत्पन्न हुआ' यह कथन असङ्गत है । देवदत्त उत्पन्न न होता तब भी उस कालरूप व्यक्तिकी उत्पत्ति अवश्य होनी थी और उस कालके अधीन उन असंख्य विकारों ने भी उत्पन्न होता ही था।