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आत्मविलास
[१३४ द्वि० खण्ड उद्यत हैं, यही तो उनकी उदारता है। भला, जव उनकी दृष्टिमें जीव शिवरूप ही है और केवल मिथ्या पदार्थोंकी पकड़से वह अपने-आप ही बन्धायमान हो गया है, यथा:
* कुण्डलिया - मरजी चेतन की जभी झक मारन की होय । भृगतृष्णाके नीरमें बह चल्यो बिन तोय ।। बह चल्यो बिन तोर ना कहुँ किनारो पावे । कहुँ ऊर्ध्व कहुँ अध पुनि-पुनि गोते खावे ॥ कहे गिरधर कविराय दीजिये किस ढिग अरजी।
परमेश्वरकी श्राप भई जब ऐसी मरजी ॥ ऐसी अवस्थामें जबकि सच-मुच यह चेतनदेव मिथ्या पकड़ से जीवरूपमें श्राप ही बँध गया है और इस पकड़का छोड़ना ही मुक्ति है तथा प्याजकी पौदके समान इधरसे उखाड़ना और उधर जमाना ही है, तब सचक्षु ऋषि-मुनि सच्चे अधिकारीके लिये जो अपने घर जा रहा है, काल अथवा वर्णका बन्धन कैसे लगा सकते हैं ? अपने घर जानेवालेके लिये भी कही कभी देशकालका बन्धन हुआ है। हाँ, यह सब बन्धन क्रम-संन्यासके अधिकारी उन वैराग्यशून्य हृदयोंके लिये तो हो सकता है, जिनमें वैराग्यकी लाली अभी नहीं आई। परन्तु मूलमें शास्त्रके सभी मर्यादारूप बन्धन, बन्धनोसे छुटकारा दिलानेके लिये ही हैं, न कि बाँधे रखनेके लिये । अनी जातिका सम्बन्धतो शरीरसे ही है न कि आत्मा से, किन्तु यह तो अब शरीरसे ही हाथ धो बैठा, अब इस शवको तुम सँभालो और बन्धन लगाये जाओ। यह लो ! हम तो जाते हैं !